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________________ २६ जयधवलासहित कषायप्राभृत चन्द्रप्रभ स्वामीकी जयकामना करते हुए उनके धवलवर्ण शरीरका उल्लेख किया है । ८ वें तीर्थङ्कर श्री चन्द्रप्रभ स्वामीके शरीरका वर्ण धवल-श्वेत था यह प्रकट ही है। अतः इस परसे यह कल्पना की जा सकती है कि जिस वाटग्रामपुरमें इस टीकाकी रचना हुई है उसके जिनालयमें चन्द्रप्रभ स्वामीकी कोई श्वेतवर्ण मूर्ति रही होगी, उसीके सान्निध्यमें होनेके कारण टीकाकारने अपनी टीकामें चन्द्रप्रभ भगवानका स्तवन किया है और उसीपरसे जयधवला नामकी सृष्टि की गई है। किन्तु यह कल्पना करते समय हमें यह न भुला देना चाहिये कि टीकाकार श्री वीरसेन स्वामीने इससे पहले प्रथम सिद्धान्तग्रन्थ षट्खण्डागमपर धवला नामकी टीका बनाई थी। उसके पश्चात् इस जयधवला टीकाका. निर्माण हुआ है । अतः इस नामका मूलाधार तो प्रथम टीकाका धवला नाम है। उसीपरसे इसका नाम जयधवला रखा गया है और दोनोंमें भेद डालने के लिये धवलाके पहले 'जय' विशेषण लगा दिया गया है। फिर भी यतः मूल नाम धवला है अतः उस नामकी कुछ सार्थकता तो इसमें होनी ही चाहिये, सम्भवतः इसीलिये इस टीकाके प्रारम्भमें धवलशरीर श्री चन्द्रप्रभ भगवानका स्तवन किया गया है। षटखण्डागमके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें उसकी टीका धवलाके नामकी सार्थकता बतलाते हुए लिखा है कि 'वीरसेन स्वामीने अपनी टीकाका नाम धवला क्यों रखा यह कहीं बतलाया गया दृष्टिगोचर नहीं हुआ । धवलका शब्दार्थ शुक्लके अतिरिक्त शुद्ध, विशद, स्पष्ट भी होता है। संभव है अपनी टोकाके इसी प्रसाद गुणको व्यक्त करने के लिये उन्होने यह नाम चुना हो।' यह टीका कार्तिक मासके धवलपक्षको त्रयोदशीको समाप्त हुई थी। अत एव संभव है इसी निमित्तसे रचयिताको यह नाम उपयुक्त जान पड़ा हो । 'यह टीका अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यके प्रारम्भ कालमें समाप्त हुई थी। अमोघवर्षकी अनेक उपाधियोंमें एक उपाधि 'अतिशयधवल' भी मिलती है। . . . संभव है उनकी यह उपाधि भी धवलाके नामकरणमें एक निमित्त कारण हुआ हो।' उक्त संभावित तीनों ही कारण इस जयधवला टीकामें भी पाये जाते हैं। प्रथम, धवलाकी तरह यह भी विशद है ही। दूसरे, इसकी समाप्ति भी शुक्ल पक्षमें हुई है और तीसरे, वह अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्य कालमें समाप्त हुई है। अतः यदि इन निमित्तोंसे टीकाका नाम धवला पड़ा हो तो उन्हीं निमित्तोंसे इसका नाम भी धवला रखकर भेद डालनेके लिये उसके पहले 'जय' विशेषण लगा दिया गया है। अस्तु, जो हो, किन्तु यह तो सुनिश्चित ही है कि नामकरण पहले धवलाका ही किया गया है और वह केवल किसी एक निमित्तसे ही नहीं किया गया। हमारा अनुमान है कि धवला टीकाकी समाप्तिके समय उसका यह नामकरण किया गया है और नामकरण करते समय भूतबलि पुष्पदन्तके धवलामल अङ्गको जरूर ध्यानमें रखा गया है। भूतबलि पुष्पदन्तके शरीरकी धवलिमा, कुन्देंदुशंखवर्ण दो वृषभोंका स्वप्नमें धरसेनके पादमूलमें आकर नमना, धवलपक्षमें और 'अतिशय धवल' उपाधिके धारक राजा अमोघवर्षके राज्यकाल में ग्रन्थकी समाप्ति होने आदि निमित्तोंसे पहली टीकाका नाम धवला रखना ही उपयुक्त प्रतीत हुआ होगा। ये तो हुए बाह्य निमित्त । उसके अन्तरंग निमित्त अथवा धवला नामकी सार्थकताका उल्लेख तो ऊपर उद्धत जयधवलाकी प्रशस्तिके प्रथम पद्यमें 'धवलियतिहुअणभवणा' विशेषणके द्वारा किया गया प्रतीत होता है। यद्यपि यह विशेषण जयधवला टीकाके लिये दिया गया है किन्तु इसे धवला टीकामें भी लगाया जा सकता है। यथार्थमें इन टीकाओंकी उज्ज्वल ख्यातिने तीनों लोकोंको धवलित कर दिया है। अतः इनका धवला नाम सार्थक है । इस प्रकार जब पहली टीकाका नाम धवला रख लिया गया तो दूसरी टीकाके नामकरणमें अधिक सोचने विचारनेकी (१) “धवलामलबहुविहविणयविहूसियंगा" धवला, पृ० ६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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