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________________ गा० २० ] ३६१ होदि १ ण; चरमदेहधारीणमवमच्चुवज्जियाणं सावएहिं खजमाणसरीराणं उक्कस्सेण वि अंतो मुहुत्तावसेसे चेव केवलुप्पत्तीदो । तब्भवत्थकेवलुवजोगरस देसूणपुव्वकोडिमेकाले संते किम मेसो कालो परूविदो ? दड्ढद्वगाणं जजरीकयावयवाणं च केवलीणं विहारो णत्थि त्ति जाणावणष्टुं । $३३०. एयत्तवियक्कअवीचारझाणस्स उक्कस्सकालो विसेसाहियो । पुधत्तवियक्कवीचारझाणस्स उक्कस्सकालो दुगुणो । कुदो एदं णंजदे ? गाहासुत्तादो । पडिवदमाणसुहुमसांपराइयस्स उक्कस्सकालो विसेसाहिओ । चडमाणसुहुमसां पराइयउवसामयस्स उक्क श्रद्धापरिमाणणिसो समाधान- नहीं, क्योंकि जो अपमृत्युसे रहित हैं किन्तु जिनका शरीर हिंस्रप्राणियोंके द्वारा खाया गया है ऐसे चश्मशरीरी जीवोंके उत्कृष्टरूपसे भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुके शेष रहने पर ही केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है, इसलिये ऐसे जीवोंके केवलज्ञानका उपयोगकाल वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं होता है । शंका-तद्भवस्थ केवलीके केवलज्ञानका उपयोगकाल कुछ कम पूर्वकोटीप्रमाण पाया जाता है, ऐसी अवस्था में यहां यह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही काल किसलिये कहा है ? समाधान - जिनका आधा शरीर जल गया है और जिनके शरीर के अवयव जर्जरित कर दिये गये हैं ऐसे केवलियोंका विहार नहीं होता है, इस बातका ज्ञान कराने के लिये यहां केवलज्ञानके उपयोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है । विशेषार्थ - यद्यपि यह ठीक है कि तद्भवस्थकेवलीका उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तमुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण है पर यहां ऐसे तद्भवस्थ केवलीकी विवक्षा न होकर, जिनका शरीर जलकर या हिंस्र प्राणियोंके द्वारा खाये जानेसे जर्जरित हो गया है और जिन्हें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रहने पर केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसे तद्भवस्थ केवलकी विवक्षा है, अतएव इस अपेक्षासे केवलज्ञान और केवलदर्शनके जघन्य और उत्कृष्ट कालको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहने में कोई बाधा नहीं आती है । ९३३०. केवलज्ञानके उत्कृष्ट कालसे एकत्ववितर्कअवीचारध्यानका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका उत्कष्ट काल दूना है । शंका - एकत्ववितर्कअवीचार ध्यानके उत्कृष्ट कालसे पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका उत्कृष्ट काल दूना है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- इस ही छठे गाथासूत्र से जाना जाता है कि एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान के उत्कृष्ट कालसे पृथकत्ववितर्कवीचार ध्यानका उत्कृष्ट काल दूना है । पृथकत्ववितर्कवीचार ध्यानके उत्कृष्ट कालसे उपशान्तकषायसे गिरते हुए सूक्ष्म सांपरायिक जीवका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे चढ़नेवाले उपशामक सूक्ष्मसांपरायिक (१) णव्वदे अ० आ० । ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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