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________________ ३६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? "जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कट्ट आयारं । अविसेसिदूण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥१४५॥" एदीए गाहाए सह विरोहो कथं ण जायदे ? ण विरोहो; सामण्णसहस्स जीवे पउत्तीदो। सामण्णविसेसप्पओ जीवो कथं सामण्णं ? ण; असेसस्थपयासभावेण राय-दोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो । तम्हा केवलणाण-दसणाणमकमेणुप्पण्णाणं अक्कमेणुवजुत्ताणमत्थित्तमिच्छियव्वं । एवं संते केवलणाण-दंसणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुञ्जदे ? सीह-वग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खञ्जमाणेसु उप्पण्ण-केवलणाण-दंसणुक्कम्सकालग्गहणादो जुञ्जदे । एदेसिं केवलुवजोगकालो बहुओ किण्ण शंका-"यह सफेद है यह पीला है इत्यादिरूपसे पदार्थों की विशेषता न करके और पदार्थोंके आकारको न लेकरके जो सामान्य ग्रहण होता है उसे जिनागममें दर्शन कहा है ॥४५॥" इस गाथाके साथ 'दर्शनका विषय अन्तरंग पदार्थ है' इस कथनका विरोध कैसे नहीं होता है अर्थात् होता ही है ? समाधान-पूर्वोक्त कथनका इस गाथाके साथ विरोध नहीं होता है, क्योंकि उक्त गाथामें जो सामान्य शब्द दिया है उसकी प्रवृत्ति जीवमें जाननी चाहिये अर्थात् 'सामान्य' पद से यहां जीवका ग्रहण किया है । शंका-जीव सामान्यविशेषात्मक है वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जीव समस्त पदार्थोंको बिना किसी भेदभावके जानता है और उसमें राग-द्वेषका अभाव है इसलिये जीवमें समानता देखी जाती है। इसलिये एकसाथ उत्पन्न हुए और एकसाथ उपयुक्त हुए केवलज्ञान और केवलदर्शनका अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये। ___ शंका-यदि ऐसा है तो केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनोंका उत्कृष्टरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल कैसे बन सकता है ? समाधान-चूंकि, यहां पर सिंह, व्याघ्र, छवल्ल, शिवा और स्याल आदिके द्वारा खाये जानेवाले जीवोंमें उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केवलदर्शनके उत्कष्ट कालका ग्रहण किया है इसलिये इनका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है। शंका-व्याघ्र आदिके द्वारा खाये जानेवाले जीवोंके केवलज्ञानके उपयोगका काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक क्यों नहीं होता है ? (१)-गो० जीव० गा० ४८२। द्रव्यसं० गा० ४३ । (२) "तत्र आत्मनः सकलबाह्यसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात् ।"-ध० सं० १० १४७। “सामान्यग्रहणम् आत्मग्रहणं तद्दर्शनम् । कस्मादिति चेत् ? आत्मा वस्तुपरिच्छित्तिं कुर्वन् 'इदं जानामि इदं न जानामि' इति विशेषपक्षपातं न करोति, किन्तु सामान्येन वस्तु परिच्छिनत्ति । तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते ।"-बहदृव्य० पृ० १७३। (३)-ल्लसिया-अ०, आ०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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