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________________ एहसो गा० २० ] सत्त कम्माणि होज आवरणिजाभावे आवरणस्स सत्तविरोहादो। ६३२८. मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दसणमिदि के वि भणंति । एत्थुवउजंती गाहा "भण्णइ खीणावरणे जह मइणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणिज्जे विसेसदो दंसणं णत्थि ॥१४४॥" ३२६. एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स; तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदसणं; सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो।। न माना जाय तो दर्शनावरणके बिना सात ही कर्म होंगे, क्योंकि आवरण करनेयोग्य दर्शनके अभाव मानने पर उसके आवरणका सद्भाव मानने में विरोध आता है। 8 ३२८. चूंकि दर्शन मतिज्ञानके समान आवरणके निमित्तसे होता है इसलिये आवरणके नष्ट हो जाने पर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषयमें उपयुक्त गाथा इसप्रकार है "जिसप्रकार ज्ञानावरणसे रहित जिन भगवान्में मतिज्ञान नहीं पाया जाता है उसीप्रकार दर्शनावरण कर्मसे रहित जिन भगवानमें विशेषरूपसे अर्थात् ज्ञानसे भिन्न दर्शन भी नहीं पाया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं ॥१४४॥" ___ ३२१. पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि जिसप्रकार मतिज्ञान आवरणका कार्य है, इसलिये आवरणके नष्ट हो जाने पर मतिज्ञानका अभाव हो जाता है उसीप्रकार आवरणका अभाव होनेसे आवरणके कार्य चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनका भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवलदर्शनका अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि केवलदर्शन कर्मजनित नहीं है । अर्थात् आवरणके रहते हुए केवलदर्शन नहीं होता है किन्तु उसके अभावमें होता है इसलिये आवरणका अभाव होने पर मतिज्ञानकी तरह केवलदर्शनका अभाव नहीं किया जा सकता है। यदि कहा जाय कि केवलदर्शनको कर्मजनित मान लिया जाय सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उसे कर्मजनित माना जायगा तो जिन भगवानके दर्शनावरणका अभाव हो जानेसे केवलदर्शनकी उत्पत्ति नहीं होगी और उसकी उत्पत्ति न होनेसे वे अपने स्वरूपको न जान सकेंगे जिससे जीव अचेतन हो जायगा और ऐसी अवस्थामें उसके ज्ञानका भी अभाव प्राप्त होगा। (१) सन्मति० २।६। (२)-चक्खु ओहिअचक्खुदंस-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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