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________________ ३५८ जयवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोस वित्ती १ पजास्स पजाया अस्थि; अणवत्थाभावप्पसंगादो | ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो । तम्हा स- परप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं । ण च दोन्हं पयासाणमेयत्तं; वज्झतरंगत्थविसयाणं सायार - अणायाराणमेयत्तविरोहादो । $ ३२७. केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज ? ण; एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणत्तप्पसंगादो। ण च केवलदंसणमव्वत्तं खीणावरणस्स सामण्ण-विसेसप्पयंतरंगत्थवावदस्स अव्वत्तभावविरोहादो । णच दोन्हं समाणत्तं फिट्टदि; अण्णोण्णभेएण भिण्णाणमसमाणत्तविरोहादो । किंच, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर एक तो पहली पर्यायकी दूसरी पर्याय, उसकी तीसरी पर्याय इसप्रकार उत्तरोत्तर पर्यायसन्तति प्राप्त होती है इसलिये अनवस्था दोष आता है । दूसरे, पर्यायकी पर्याय माननेसे पर्याय द्रव्य हो जाती है इसलिये उसमें पर्यायत्वका अभाव प्राप्त होता है । इसप्रकार पर्यायकी पर्याय मान कर भी केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नहीं हो सकता है तथा केवलज्ञान स्वयं न तो जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने और देखनेरूप क्रियाका कर्ता नहीं है, इसलिये ज्ञानको अन्तरंग और बहिरंग दोनोंका प्रकाशक न मान कर जीव स्व और परका प्रकाशक है ऐसा मानना चाहिये । केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों प्रकाश एक हैं ऐसा भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि बाह्य पदार्थको विषय करनेवाले साकार उपयोग और अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले अनाकार उपयोगको एक माननेमें विरोध आता है । ९३२७. शंका - केवलज्ञानसे केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिये केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिये ज्ञानको भी दर्शनपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि केवलदर्शन अव्यक्त है, इसलिये केवलज्ञान केवलदर्शनरूप नहीं हो सकता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो आवरण से रहित है और जो सामान्यविशेषात्मक अन्तरंग पदार्थके अवलोकनमें लगा हुआ है ऐसे केवलदर्शनको अव्यक्तरूप स्वीकार करनेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि केवलदर्शनको भी व्यक्तरूप स्वीकार करनेसे केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनोंकी समानता अर्थात् अनेकता नष्ट हो जायगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि परस्परके भेदसे इन दोनोंमें भेद है इसलिये इनमें असमानता अर्थात् एकताके माननेमें विरोध आता है । दूसरे यदि दर्शनका सद्भाव (१) "परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं । ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥ " - सम्मति० २।११। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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