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________________ गा० २०] श्रद्धापरिमाणणिदेसो कमस्स तदभावेण अभावमुक्गयस्स तत्थ सत्तविरोहादो। "परमाणुआइयाइं अंतिमखंधो त्ति मुत्तिदव्वाई ॥१४२॥" इदि वज्झत्थणिसादो ण सणमंतरंगत्थविसयमिदि णासंकणिजं: विसयणिदेसदवारेण विसयिणिद्देसादो अण्णेण पयारेण अंतरंगविसयणिरूवणाणुववत्तीदो। जेण केवलणाणं स-परपयासयं, तेण केवलदसणं णत्थि त्ति के वि भणंति । एत्थुवउअंतीओ गाहाओ "मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलिय णाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं ति य समाणं ॥१४३॥" $ ३२६. एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पञ्जायस्स पजायाभावादो । ण उपयोगोंकी क्रमवृत्ति कर्मका कार्य है और कर्मका अभाव हो जानेसे उपयोगोंकी क्रमवृत्तिका भी अभाव हो जाता है, इसलिये निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शनकी क्रमवृत्तिके मानने में विरोध आता है। शंका-आगममें कहा है कि "अवधिदर्शन परमाणुसे लेकर अन्तिम स्कन्धपर्यन्त मूर्तिक द्रव्योंको देखता है॥१४२॥" इसमें दर्शनका विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अतः दर्शन अन्तरंग पदार्थको विषय करता है यह कहना ठीक नहीं है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि 'परमाणु आदियाई' इत्यादि गाथामें विषयके निर्देश द्वारा विषयीका निर्देश किया है, क्योंकि अन्तरंग विषयका निरूपण अन्य प्रकारसे किया नहीं जा सकता है। अर्थात् अवधिज्ञानका विषय मूर्तिक पदार्थ है अतः अवधिदर्शनके विषयभूत अन्तरंग पदार्थको बतलानेका अन्य कोई प्रकार न होनेके कारण मूर्तिक पदार्थका अवलम्बन लेकर उसका निर्देश किया है। शंका-चूंकि केवलज्ञान स्व और पर दोनोंका प्रकाशक है, इसलिये केवलदर्शन नहीं है ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषयकी उपयुक्त गाथा देते हैं "मनःपर्ययज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन इन दोनोंमें विशेष अर्थात् भेद है। परन्तु केवलज्ञानकी अपेक्षासे तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान हैं ॥१४३॥" ३२६. समाधान-परन्तु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिये उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है । अर्थात् यदि केवलज्ञानको स्वपरप्रकाशक माना जायगा तो उसकी एक कालमें स्वप्रकाशरूप और परप्रकाशरूप दो पर्यायें माननी पड़ेंगी। किन्तु केवलज्ञान स्वयं परप्रकाशरूप एक पर्याय है अतः उसकी स्वप्रकाशरूप दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्यायकी पर्यायें होती हैं ऐसा कहना भी (१) "परमाणुआदिआइं अंतिमखंधं त्ति मुत्तिदव्वाइं । तं ओहिदसणं पुण जं पस्सइ ताइ पच्चक्खं ॥" -गो० जीव० गा० ४८५ । (२) सन्मति० २।३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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