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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ प्रसङ्गात् । न सापेक्षः; अनवस्थाप्रसङ्गात् । नेश्वरः संघटयति; तस्यासत्त्वात् । ततः स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयकान्तव्यतिरिक्तत्वात् जात्यन्तरं वस्त्विति स्थितम् । तदो सामण्णविसेसविसयत्ते केवलणाण-दसणाणमभावो होज णिव्विसयत्तादो त्ति सिद्धं । उत्तं च "अद्दिढं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि । एयसमयम्मि हंदि हु वयणविसेसो ण संभवइ ॥१४०॥ अण्णादं पासंतो अदिलैमरहा सया वियाणतो । किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्हो त्ति वा होइ ॥१४१॥" ६३२५. एसो दोसो मा होदु त्ति अंतरंगुजोवो केवलदसणं, बहिरंगत्थविसओ पयासो केवलणाणमिदि इच्छियव्वं । ण च दोण्हमुवजोगाणमकमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स भी समवायादिककी अपेक्षा बिना किये उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय दूसरे समवायकी अपेक्षा करके उत्पन्न होता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । सामान्य और विशेषका सम्बन्ध ईश्वर करा देता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि ईश्वरका अभाव है। अतएव सामान्य और विशेष स्वयं ही एकपनेको प्राप्त हैं यह निश्चित होता है। इसका यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्यरूप है, न विशेषरूप है न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभवरूप है किन्तु जात्यन्तररूप ही वस्तु है ऐसा सिद्ध होता है। ___अतः जब कि सामान्यविशेषात्मक वस्तु है तो केवलदर्शनको केवल सामान्यको विषय करनेवाला मानने पर और केवलज्ञानको केवल विशेषको विषय करनेवाला मानने पर दोनों उपयोगोंका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप पदार्थ नहीं पाये जाते हैं, ऐसा सिद्ध हुआ। कहा भी है “यदि दर्शनका विषय केवल सामान्य और ज्ञानका विषय केवल विशेष माना जाय तो केवली जिन जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थको तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थको ही सदा कहते हैं यह आपत्ति प्राप्त होती है। और इसलिये ‘एक समयमें ज्ञात और दृष्ट पदार्थको केवली जिन कहते हैं। यह वचनविशेष नहीं बन सकता है ॥१४०॥" "अज्ञात पदार्थको देखते हुए और अदृष्ट पदार्थको जानते हुए अरहंतदेव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं ? तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ॥१४१॥" ३२५. ये ऊपर कहे गये दोष प्राप्त नहीं हो, इसलिये अन्तरंग उद्योत केवलदर्शन है और बहिरंग पदार्थोंको विषय करनेवाला प्रकाश केवलज्ञान है, ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिये। दोनों उपयोगोंकी एकसाथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि (१) सन्मति० २।१२। (२) सन्मति० २।१३। (३)-दृवुरहा स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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