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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ स्सकालो विसेसाहियो । सुहुमसांपराइयक्खवयस्स उक्कस्सकालो विसेसाहियो। माणउकस्सकालो दुगुणो। कोहउक्कस्सकालो विसेसाहिओ । मायाउकासकालो विसेसाहिओ । लोहउक्कस्सकालो विसेसाहिओ। खुद्दाभवग्गहणउक्कस्सकालो विसेसाहिओ। किट्टीकरणुकस्सकालो विसेसाहिओ। संकामयउक्कस्सकालो विसेसाहिओ। ओवट्टणाए उक्कस्सकालो विसेसाहिओ । उवसंतकसायस्स उक्कस्सकालो दुगुणो । खीणकसायस्स उक्कस्सकालो विसेसाहिओ। अंतरकरणे कदे चारित्तमोहणीयस्स उवसामओ णाम होदि । तस्स उकस्सकालो दुगुणो । अंतकरणे कदे चारित्तमोहणीयस्स खवओ णाम होदि । तस्स उक्कस्सकालो विसेसाहिओ । एवमद्धाणमप्पाबहुअं परूविदं । ६३३१. संपहि पण्णारससु अत्थाहियारेसु एत्थ पढमत्थाहियारपरूवणहं जइवसहाइरिओ उत्तरसुत्तं भणयि * एत्तो सुत्तसमोदारो। जीवका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है । इससे क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे मानका उत्कृष्ट काल दूना है। इससे क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे क्षुद्रभवग्रहणका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे कृष्टिकरणका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे संक्रामकका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे अपवर्तनाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे उपशान्तकषायका उत्कृष्ट काल दूना है। इससे क्षीणकषायका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। अन्तरकरणके कर लेने पर जीव चारित्रमोहनीयका उपशामक होता है। इस उपशामकका उत्कृष्ट काल क्षीणकषायके उत्कृष्ट कालसे दूना है। अन्तरकरण कर लेने पर जीव चारित्रमोहनीयका क्षपक होता है। इस क्षपकका उत्कृष्ट काल उपशामकके उत्कृष्ट कालसे विशेष अधिक है । इसप्रकार कालोंके अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ। ३३१. अब यहां पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे पहले अधिकारका कथन करनेके लिये यतिवृषभ आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं * इस अल्पबहुत्वके कथनके अनन्तर सूत्रका अवतार होता है। विशेषार्थ-' पेज वा दोसो वा' इत्यादि कही जानेवाली गाथाके पहले बारह संबन्ध गाथाओं, पन्द्रह अधिकारोंके नामोंका निर्देश करनेवाली दो गाथाओं और अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छह गाथाओंका व्याख्यान किया जा चुका है। इनमेंसे बारह संबन्ध गाथाएं पन्द्रह अर्थाधिकारोंमेंसे किस अर्थाधिकारमें कितनी गाथाएँ आई हैं केवल इसका कथन करती हैं, इसलिये उनका पन्द्रह अर्थाधिकारोंके मूल विषयके प्रतिपादनसे कोई संबन्ध नहीं है। अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छह गाथाएं विवक्षित स्थानों में केवल कालके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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