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________________ ३४६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? १३१४. संपहि तइयगाहाए अत्थो उच्चदे । तं जहा, खवयसेटिं आरोहमाणसुहुमसांपराइयअद्धादो जहणिया माणद्धा विसेसाहिया। तत्तो जहणिया कोधद्धा विसेसाहिया। तत्तो जहणिया मायद्धा विसेसाहिया । तत्तो जहणिया लोहद्धा विसेसाहिया । तत्तो जहणिया खुद्दाभवग्गहणद्धा विसेसाहिया। खुद्दाभवग्गहणमेयवियप्पं खुद्दविसेसणण्णहाणुववत्तीदो ति ण वोत्तं जुत्तं; पजत्तजहण्णाउआदो वि दहरत्तं दट्टणं अपज्जत्तआउअस्स खुद्दाभवग्गहणत्तब्भुवगमादो । तं पि कुदो णव्वदे ? जहण्णुकस्सविसेसणण्णहाणुववत्तीदो। जहणिया किट्टीकरणद्धा विसेसाहिया । एसा लोहोदएण खवगसेढिं चडिदस्स होदि । एवं तदियगाहाए अत्थपरूवणा कया । ३१४. अब तीसरी गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-क्षपक श्रेणी पर चढ़नेवाले सूक्ष्मसांपरायिक जीवके जघन्य कालसे मानका जघन्य काल विशेष अधिक है। मानके जघन्य कालसे क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है। क्रोधके जघन्य कालसे मायाका जघन्य काल विशेष अधिक है। मायाके जघन्य कालसे लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है। लोभके जघन्य कालसे क्षुद्रभवग्रहणका जघन्य काल विशेष अधिक है। शंका-क्षुद्रभवग्रहण एक प्रकारका ही है अर्थात् उसमें जघन्यकाल और उत्कृष्टकालका भेद नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जाय तो उसका क्षुद्र विशेषण नहीं बन सकता ? समाधान-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पर्याप्तकी जघन्य आयुसे भी अपर्याप्तकी आयु कम होती है यह देखकर अपर्याप्तके भवधारणको क्षुद्रभवग्रहणरूपसे स्वीकार किया है। शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-यदि ऐसा न होता तो क्षुद्रभवग्रहणके जघन्य और उत्कृष्ट ये विशेषण नहीं बन सकते। विशेषार्थ-क्षुद्रभवग्रहणमें क्षुद्र विशेषण, क्षुद्रभवग्रहणके जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं होते हैं, यह बतलानेके लिये नहीं दिया है। किन्तु पर्याप्त जीवकी जघन्य आयुसे लब्ध्यपर्याप्त जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारकी आयु कम होती है, इसके ज्ञान करानेके लिये दिया है। इसका यह तात्पर्य है कि जितने भी पर्याप्त जीव हैं उन सबके आयुप्रमाणसे लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी आयु क्षुद्र अर्थात् अल्प होती है, यह बतलानेके लिये क्षुद्रभवग्रहणमें क्षुद्र विशेषण दिया गया है । क्षुद्रभवग्रहणके जघन्य कालसे कृष्टीकरणका जघन्य काल विशेष अधिक होता है । यह जघन्य कृष्टि लोभके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाले जीवके होती है। इस प्रकार तीसरी गाथाके अर्थका कथन समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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