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________________ गा० १८ ] श्रद्धापरिमाणणिद्दो संकामण-ओवट्टण उवसंतकसाय खीणमोहडा । उवसामेंतयश्रद्धा खवेंतअद्धा य बोद्धव्वा ॥ १८ ॥ $ ३१५. 'संकामणं' ति काए अद्धाए सण्णा : अंतरकरणे कए जं णवुंसयवेयक्खवणं तस्स ' संकमणं ' ति सण्णा । तत्थतणी जा जहणिया अद्धा सा संकमणद्धा णाम | सा विसेसाहिया । किमोवट्टणं णाम ? णवुंसय वेए खविदे सेसणोकसायक्खवणमोट्टणं णाम । तत्थ ओवट्टणम्मि जा जहण्णिया अद्धा सा विसेसाहिया । उवसंतकसायस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया । खीणकसायस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया | उवसमसेटिं चढमाणेण मोहणीयस्स अतरकरणं कदे सो 'उवसामओ' त्ति भण्णदि, तस्स उवसातयस्स जा जहण्णिया अद्धा विसेसाहिया । खवयसेटिं चढमाणेण मोहutta अंतकरणे कदे 'खवेंतओ' ति भण्णदि, तस्स जा जहणिया अद्धा विसेसाहिया । ३४७ कृष्टिकरणके जघन्य कालसे संक्रामणका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे अपवर्तनका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे उपशान्तकषायका जघन्यकाल विशेष अधिक है । इससे क्षीणमोहका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे उपशामकका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे क्षपकका जघन्य काल विशेष अधिक समझना चाहिये ॥ १८ ॥ ९ ३१५. शंका - संक्रामण यह किस कालकी संज्ञा है ? समाधान - अन्तरकरण कर लेने पर जो नपुंसकवेदका क्षपण होता है यहाँ उसकी संक्रामण संज्ञा है । उसमें जो जघन्य काल लगता है उसे संक्रामणका जघन्य काल कहते हैं । वह संक्रमणका जघन्य काल कृष्टिकरणके जघन्य कालसे विशेष अधिक है । शंका- अपवर्तन किसे कहते हैं ? समाधान- नपुंसक वेदका क्षपण हो जाने पर शेष नोकषायोंके क्षपण होनेको यहाँ अपवर्तन कहा है । Jain Education International इस अपवर्तनरूप अवस्थामें जो जघन्य काल लगता है वह संक्रामणके जघन्य काल से विशेष अधिक है। अपवर्तनके जघन्य कालसे उपशान्तकषायका जघन्य काल विशेष अधिक है । उपशान्तकषायके जघन्य कालसे क्षीणकषायका जघन्य काल विशेष अधिक है । उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाला जीव चारित्र मोहनीयकर्मका अन्तकरण कर लेने पर उपशामक कहा जाता है । उस उपशामकका जो जघन्य काल है वह क्षीणकषायके जघन्य कालसे विशेष अधिक है । क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाला जीव चारित्रमोहनीयका अन्तरकरण कर लेने पर क्षपक कहा जाता है । उसका जो जघन्य काल है वह उपशामकके जघन्य कालसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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