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________________ गा० १७ ] श्रद्धापरिमाणणि सो ३४५ जहण्णद्धा विसेसाहिया । ' पडिवादुवसामेंतयखवेंतए संपराए अ' - ' संपराए' ति उत्ते सुमसांप इस गहणं कायव्वं । बादरसां पराइयस्स गहणं किण्ण होदि ? ण; बादरसां पराइयअद्धादो संखेजगुणहीणस्स संकामयजहण्णकालस्स एदम्हादो विसेसा - हियत्तदंसणादो । $३१३. संपहि एवं सुत्तत्थो संबंधणिजो, उवसमसेढीदो पडिवदमाणो सुहुमसांपराइओ पडिवादसां पराइयो त्ति उच्चदे । तस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया । सुहुमसांपइओ उवसमसेटिं चंढमाणो उवसामेंतसांपराइओ णाम । तस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया | खवयसेटिं चढमाणसुहुमसांपराइओ खवेंतसांपराओ णाम । तहि खवेंतए संपराए जहणिया अद्धा विसेसाहिया । एवं विदियगाहाए अत्थो समंतो । माद्धा कोहद्धा मायद्धा तहय चेव लोहद्धा | खुद्धभवग्गहणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वा ॥१७॥ होता है वह पृथक्त्व वितर्कवीचार ध्यान है । इस ध्यानका जघन्य काल एकत्ववितर्कअवीचार ध्यानके जघन्य कालसे विशेष अधिक है । ' पडिवादुवसामेंतयखवेंतए संपराए य ' इसमें 'संपराय' ऐसा कहने पर उससे सूक्ष्मस परायिकका ग्रहण करना चाहिये । शंका- संपराय इस पदसे बादरसांपरायिकका ग्रहण क्यों नहीं होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि संक्रामकका जघन्य काल बादरसांपरायिकके जघन्य कालसे संख्यातगुणा हीन होता हुआ भी सूक्ष्मसांपरायिक के जघन्यकाल से विशेष अधिक देखा जाता है । इससे प्रतीत होता है कि यहां पर 'संपराय' पदसे सूक्ष्मसांपरायिकका ग्रहण किया है । $ ३१३. अब सूत्रके अर्थका इसप्रकार संबन्ध करना चाहिये-उपशमश्रेणी से गिरनेवाला सूक्ष्मसांपरायिक प्रतिपातसांपरायिक कहा जाता है । इसका जघन्य काल पृथक्त्ववितर्क - वीचारध्यानके जघन्य कालसे विशेष अधिक है । उपशम श्रेणीपर चढ़नेवाला सूक्ष्मसांपरायिक जीव उपशामक सांपरायिक कहलाता है । इसका जघन्य काल प्रतिपातसांपरायिक के जघन्य कासे विशेष अधिक है । क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाला सूक्ष्मसांपरायिक जीव क्षपकसूक्ष्मसांपरायिक कहलाता है । इस क्षपक सांपरायिकका जघन्य काल उपशामक सांपरायिक के जघन्य कालसे विशेष अधिक है । इसप्रकार दूसरी गाथाका अर्थ समाप्त हुआ । 1 क्षपक सूक्ष्मसांपरायिकके जघन्यकाल से मानका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे क्रोधका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे मायाका जघन्य काल विशेष अधिक । इससे लोभका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे क्षुद्रभवग्रहणका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे कृष्टिकरणका जघन्य काल विशेष अधिक है ॥ १७ ॥ (१) चलमा - स० । ( २ ) समत्यो ता० । ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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