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________________ trader हिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? $ ३१२. 'एक पुधत्ते य' 'एक्कए' ति उत्ते एयत्तवियक्कअविचारझाणस्स गहणं कायन्वं । कथमेक्कसद्दो तस्स वाचओ ! न; नामैकदेशादपि देवशब्दात् बलदेव प्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् । एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्य द्वादशाङ्गादेः अविचारोऽर्थ-व्यञ्जनयोगेष्वसङ्क्रान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कावीचारं ध्यानम् । एदस्स ज्झाणस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया । पुधत्तेत्ति उत्ते पुधत्तविथक्कवीचारकाणस्स पुष्वं व गहणं कायव्वं । कोऽस्यार्थः ? पृथक्त्वेन भेदेन विर्तर्कस्य श्रुतस्य द्वादशाङ्गादेवीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगेषु सङ्क्रान्तिर्यस्मिन् ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानम् । एयस्स ज्झाणस्स हैं वह, जिनका शरीर हिंस्र प्राणियोंके द्वारा खाया जानेसे अत्यन्त जर्जरित हो गया है, अत एव जिन्हें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रह जाने पर केवलज्ञानकी प्राप्त हुई है और एक अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही जो मुक्त हो जानेवाले हैं उनकी अपेक्षा कहा गया है, अन्यकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन निरन्तर सोपयोग होनेसे अन्यकी अपेक्षा उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त नहीं बन सकता है । अन्यकी अपेक्षा इन दोनोंका काल सादि अनन्त है । यहां मुख्यरूपसे सोपसर्ग केवलीकी वर्तमान पर्याय विवक्षित है । उसका काल अन्तर्मुहूर्त रहने पर केवलज्ञान हुआ इसलिये केवलदर्शन और केवलज्ञानका काल भी अन्तर्मुहूर्त कहा है । 1 $ ३१२. 'एक्कए पुधत्ते य' इस पद में 'एक्कए' ऐसा कहनेसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यानका ग्रहण करना चाहिये । शंका - एक शब्द एकत्ववितर्कअवीचाररूप ध्यानका वाचक कैसे है ? समाधान-क्योंकि नामके एकदेशरूप देव शब्दसे भी बलदेवका ज्ञान होता हुआ पाया जाता है, इससे जाना जाता है कि यहांपर एक शब्दसे एकत्ववितर्कअवीचार ध्यानका ग्रहण किया है । एकरूपसे अर्थात् अभेदरूपसे वितर्कका अर्थात् द्वादशांग आदिरूप श्रुतका आलंबन लेकर जिस ध्यानमें वीचार नहीं होता है अर्थात् अर्थ व्यंजन और योगकी संक्रान्ति नहीं होती है वह एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान है । इस ध्यानका जघन्यकाल उपर्युक्त केवलज्ञान आदि तीनोंके जघन्य कालसे विशेष अधिक है । ' पुधत्ते' ऐसा कहनेसे पहले के समान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका ग्रहण करना चाहिये । ३४४ शंका- पृथक्त्ववितर्क वीचारका क्या अर्थ है ? समाधान-पृथक्त्वरूपसे अर्थात् भेदरूपसे वितर्कका अर्थात् द्वादशांगादिरूप श्रुतका आलंबन लेकर जिस ध्यानमें वीचार अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति परिवर्तन (१) "वितर्कः श्रुतम् " - त० सू० ९।४३ । (२) "वीचारोऽर्थं व्यञ्जनयोगसङ क्रान्तिः ।" - त० सू० ९।४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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