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________________ गा० १६ ] श्रद्धापरिमाणणिदेसो ३४३ 'कसायसुक्के' चेदि एत्थ च सद्दो कायव्वी, अण्णहा समुच्चयत्थाणुववत्तीदो; ण; चं-सदेण विणा वि ' पुढवियादिसु' तदत्थावगमादो । तब्भवत्थ केवलिस्सेति कथं णव्वदे ? तो मुहुत्त काण्णहाणुववत्तीदो । शंका- 'कसायसुके' यहां 'च' शब्दका प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि 'च' शब्द के बिना तीनोंका समुच्चयरूप अर्थ नहीं लिया जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि 'च' शब्द के बिना भी पृथिवी आदि में समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है । " विशेषार्थ - यहां यह शंका उठाई गई है कि जब कि केवलदर्शन, केवलज्ञान और सकषाय जीवके शुक्ललेश्या इन तीनोंके काल समान हैं तो इन तीनोंके समुच्चयरूप अर्थके द्योतन करनेके लिये गाथा में आये हुए 'कसायसुक्के' इस पदके आगे 'च' शब्दका प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि 'च' शब्द के बिना समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है । इसका समाधान वीरसेन स्वामीने यह किया है कि जिस प्रकार पृथिवी आदि में ' च शब्दका प्रयोग नहीं किया है तो भी वहां समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये । राजवार्तिक अध्याय २ सूत्र १० में एक शंका उठाई गई है कि जिसप्रकार 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति ' यहां 'च' शब्द के बिना ही समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है उसीप्रकार 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस सूत्र में भी यदि 'च' शब्द न दिया जाय तो भी समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जायगा । मालूम होता है वीरसेन स्वामीने 'पुढवियादिसु' पदके द्वारा राजवार्तिक में उद्धृत 'पृथिव्यापस्तेजोवायुः, इस सूत्रका निर्देश किया है। 1 शंका- यहां पर केवलज्ञान और केवलदर्शनका जघन्यकाल तद्भवस्थ केवलकी अपेक्षासे है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- यदि केवलज्ञान और केवल दर्शनका जघन्यकाल तद्भवस्थ केवलकी अपेक्षा न कहा जाय तो उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त नहीं बन सकता है । इससे प्रतीत होता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शनका जघन्यकाल तद्भवस्थ केवलीकी अपेक्षासे ही बतलाया है । विशेषार्थ-तद्भवस्थ केवली और सिद्धकेवली के भेदसे केवली दो प्रकारके हैं । जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसी पर्याय में स्थित केवलीको तद्भवस्थ केवली कहते हैं और सिद्ध जीवोंको सिद्ध केवली कहते हैं । यहां केवलज्ञान और केवलदर्शनका जघन्य काल जो अन्तमुहूर्त कहा है और आगे चलकर इन दोनोंका उत्कृष्ट काल जो अन्तर्मुहूर्त कहनेवाले (१) तुलना - " स्यान्मतम् च शब्दोऽनर्थकः । कुतः ? अर्थभेदात् समुच्चयसिद्धेः । भिन्ना हि संसारिणो मुक्ताश्च ततो विशेषणविशेष्यत्वानुपपत्तेः समुच्चयः सिद्धः, यथा पृथिव्याप्ते ( व्यापस्ते) जोवायुरिति” - राजवा० २ १०, ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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