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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ ६३१०. उस्सासजहण्णद्धा विसेसाहिया । एसो उस्सासजहण्णकालो विहुराउरेसु सुहुमेइंदिएसु अण्णेसु वा घेत्तव्यो। एवं पढमगाहत्थो परूविदो । केवलदसण-णाणे कसाय-सुकेकए पुधत्ते य । पडिवादुवसातय-खवेंतए संपराए य ॥१६॥ ६३११. एदिस्से विदियगाहाए अत्थो उच्चदे। तं जहा, 'केवलदसण-णाणे कसायसुके तब्भवत्थकेवलिस्स केवलणाण-केवलदसणाणं जाओ जहण्णद्धाओ सकसायस्स जीवस्स सुक्कलेस्साए जहण्णद्धा च तिण्णि विसरिसाओ उस्सासजहण्णद्धादो विसेसाहियाओ। क्रमशः कर्णेन्द्रियजन्य और चक्षु इन्द्रियजन्य मतिज्ञान है। इसके अनन्तर मनके सम्बन्धसे जो घट पदार्थ विषयक अर्थज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यदि यह श्रुतज्ञान सुनकर हुआ हो तो वह शब्द लिंगज कहा जायगा और घट शब्दके आकारको देखकर हुआ तो वह अर्थलिंगज कहा जायगा । शब्दलिंगज श्रुतज्ञानके लौकिक और लोकोत्तर इसप्रकार दो भेद किये हैं। जिनका स्वरूप ऊपर लिखा ही है। ____३१०. श्वासोच्छ्वासका जघन्य काल श्रुतज्ञानके जघन्यकालसे विशेष अधिक है। श्वासोच्छ्वासका यह जघन्य काल विकल और आतुरोंके, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके अथवा अन्य जीवोंके पाया जाता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसप्रकार जघन्य अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली पहली गाथाके अर्थका कथन समाप्त हुआ। तद्भवस्थ केवलीके केवलज्ञान और केवलदर्शनका काल तथा सकषाय जीवके शुक्ललेश्याका काल, ये तीनों काल समान होते हुए भी इनमेंसे प्रत्येकका काल श्वासोच्छ्वासके जघन्य कालसे विशेष अधिक है। इन तीनोंके जघन्य कालसे एकत्ववितकेअवीचार ध्यानका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानका जघन्य काल विशेष अधिक है । इससे उपशम श्रेणीसे गिरे हुए सूक्ष्मसांपरायिकका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले सूक्ष्मसांपरायिकका जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे क्षपक श्रेणीगत सूक्ष्मसांपरायिकका जघन्य काल विशेष अधिक है ॥१६॥ ३११. अब इस दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है- केवलदंसणणाणे कसायसुक्के' तद्भवस्थ केवलीके केवलज्ञान और केवलदर्शनका जघन्य काल तथा कषायसहित जीवके शुक्ललेश्याका जघन्य काल ये तीनों ही काल समान हैं तथा प्रत्येक काल श्वासोच्छ्वासके जघन्य कालसे विशेष अधिक है। (१)-सुक्केक्कए पुधत्ते य सा तब्भव-आ० । (२) "भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भव: नारकादिजन्म, तत्र इह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्यः अन्यत्र केवलोत्पादाभावात । भवे तिष्ठतीति भवस्थः । तस्य केवलज्ञानं भवस्थकेवलज्ञानम् ।"-नन्दी० मलय० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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