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________________ मा० १५ ] गजं चेदि । १३०६. तत्थ जं सद्दलिंगजं तं दुविहं- लोइयं लोउत्तरियं चेदि । सामण्णपुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणियणाणं लोइयसद्दजं । असच्चकारणावणिम्मुक्क पुरिसवयणविणिग्गयवयणकलावजणियसुदणाणं लोउत्तरियसद्दजं । धूमादिअत्थलिंगजं पुण अणुमा णाम । श्रद्धापरिमाणणिसो ३४१ ज्ञान कहते हैं । वह श्रुतज्ञान शब्दलिंगज और अर्थलिंगजके भेदसे दो प्रकारका है । १३०१. उनमें भी जो शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है वह लौकिक और लोकोत्तरके भेद से दो प्रकारका है । सामान्य पुरुषके मुखसे निकले हुए वचनसमुदायसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोलने के कारणोंसे रहित पुरुष के मुखसे निकले हुए वचन समुदायसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह लोकोत्तर शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । तथा धूमादिक पदार्थरूप लिंगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ लिंग श्रुतज्ञान है इसका दूसरा नाम अनुमान भी है । 1 विशेषार्थ - - ऊपर श्रुतज्ञानके स्वरूप और भेदोंका विचार किया गया है । ऊपर श्रुतज्ञानका जो स्वरूप बतलाया है उसका सार यह है कि जो मतिज्ञाननिमित्तक होते हुए भी मतिज्ञानसे जाने गये पदार्थ से भिन्न पदार्थको जानता है वह श्रुतज्ञान है । यहां श्रुतज्ञानको मतिज्ञान निमित्तक कहने का यह अभिप्राय है कि श्रुतज्ञान सीधा दर्शनपूर्वक कभी भी नहीं होता है किन्तु श्रुतज्ञानकी धाराका प्रारंभ मतिज्ञानसे ही होता है । तथा श्रुतज्ञान भतिज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थ से भिन्न पदार्थको जानता है । इसके कहने का यह अभिप्राय है कि मतिज्ञानकी धाराके प्राथमिक विकल्पको छोड़कर अन्य ईहा आदि विकल्प श्रुतज्ञान न कहे जावें । इस श्रुतज्ञानके मूलमें शब्दलिंगज और अर्थलिंगज इस प्रकार दो भेद किये हैं । शब्दलिंगज में कर्णेन्द्रियकी प्रमुखता से उत्पन्न होनेवाले श्रुतज्ञानका ग्रहण किया है और अर्थ - लिंगज में शेष इन्द्रियोंकी प्रमुखतासे उत्पन्न होनेवाले श्रुतज्ञानका ग्रहण किया है। श्रुतज्ञान के इसप्रकार भेद करनेका मुख्य कारण परप्रत्यय और स्वप्रत्यय हैं । शब्दलिंगज श्रुतज्ञान पर के निमित्तसे ही होगा और अर्थलिंगज श्रुतज्ञान परप्रत्ययके बिना नेत्रादि इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न हुए मतिज्ञानके निमित्तसे होता है । जब शास्त्र आदि स्वयं पढ़कर श्रुतज्ञान होता है। तब उसे अर्थलिंगज श्रुतज्ञान ही समझना चाहिये, क्योंकि वहां कर्णेन्द्रियके विषयकी प्रमुखता न होकर नेत्र इन्द्रियके विषयकी प्रमुखता है । घट इस शब्दका ज्ञान कर्णेन्द्रियका विषय है और घट इस शब्द के आकारका ज्ञान नेत्र इन्द्रियका विषय है और यही ज्ञान लिंङ्गशब्दसमुद्भवम् - " जैनतर्कवा० पृ० १३१ । Jain Education International (१) तुलना - " आप्तोपदेशः शब्दः, स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात् " - न्यायसू० १।१०७, ८| " शाब्दं द्विधा भवति-लौकिकं शास्त्रजं चेति" - न्यायाव० टी० पू० ४२। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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