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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेजदोसविहत्ती ? ३०८. सुदणाणद्धा जहणिया विसेसाहिया। किं सुदणाणं णाम ? मदिणाणजणिदं जंणाणं तं सुदणाणं णाम । “सुदं मइपुव्वं ॥१३५॥” इदि वैयणादो। जदि एवं, तो ओग्गहपुन्वाणमीहावायधारणाणं पि सुदणाणत्तं पसजदे ? ण; तेसिमोग्गहणाणविसयीकयत्थे वावदत्तादो लद्धमयिणाणववएसाणं सुदणाणत्तविरोहादो। किं पुण सुदणाणं णाम ? मयिणाणपरिच्छिण्णत्थादो पुधभूदत्थावगमो सुदणाणं । तं दुविहं-सद्दलिंगजं, अत्थलिंमिली। यह सब विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर ही हो सकता है । अतः विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर और ज्ञानके पहले दर्शन स्वीकार किया गया । पर जहां स्वमतके मण्डन और परमत खण्डनकी प्रमुखता नहीं रही किन्तु सैद्धान्तिक व्यवस्था ही प्रमुख रही यहां स्वप्रकाशक दर्शन और परप्रकाशक ज्ञान है यह सिद्धान्त स्वीकार किया गया। इसके स्वीकार कर लेने पर आत्मप्रकाश इन्द्रियोंसे तो हो नहीं सकता है, क्योंकि इन्द्रियाँ आत्माको ग्रहण नहीं करती हैं, अतएव विषय और विषयीके सन्निपातके पहले दर्शन माना गया। फिर भी वह आत्मप्रयत्न चक्षु आदि विवक्षित इन्द्रियों द्वारा पदार्थों के ज्ञानमें सहकारी होता है, अतएव उसे चक्षुदर्शन आदि संज्ञाएं प्राप्त हुई। इतने विवेचनसे यह निश्चित हो जाता है कि स्वप्रकाशक दर्शन है और परप्रकाशक ज्ञान, यह सैद्धान्तिक मत है। तथा विषय और विषयीके सन्निपातके अनन्तर पदार्थको कर्मरूपसे स्वीकार न करके जो सामान्य अवभास होता है वह दर्शन है और विकल्परूप जो अवबोध होता है वह ज्ञान है, यह दार्शनिक मत है। ३०८. श्रुतज्ञानका जघन्य काल ईहाज्ञानके जघन्य कालसे विशेष अधिक है। शंका-श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ? समाधान-जो ज्ञान मतिज्ञानसे उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है, क्योंकि "श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है ॥१३५॥" ऐसा वचन है। शंका-यदि मतिज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं तो अवग्रह ज्ञान पूर्षक होनेवाले ईहा, अवाय और धारणाज्ञान भी श्रुतज्ञान हो जायंगे ? समाधान-नहीं, क्योंकि ईहा, अवाय और धारणा ये तीनों ज्ञान अवग्रहज्ञानके द्वारा विषय किये गये पदार्थमें ही व्यापृत होनेसे मतिज्ञान कहलाते हैं, इसलिये उन्हें श्रुतज्ञान मानने में विरोध आता है। शंका-तो फिर श्रुतज्ञानका क्या स्वरूप है ? समाधान-मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थसे भिन्न पदार्थको जाननेवाले ज्ञानको श्रुत (१)-साधिया स० । (२) "श्रुतं मतिपूर्व.."-त० सू० ११२० । (३) “अवग्गहादिधारणापेरंतमदिणाणेण अवगयत्थादो अण्णत्थावगमो सुदणाणं । तं च दुविहं-सद्दलिंगजं असद्दलिंगजं चेदि । धूमलिंगादो जलगाक्ममो असद्दलिंगजो अवरो सद्दलिंगजो।"-ध० आ० ५० ८७१ । (४) तुलना-"परोक्षं द्विविधं प्राहु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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