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________________ गा० १३-१४] कसाए शिक्खेवपरूवणा अवग्गहस्स अभावो होदि चे सच्चंउजुसुदेसु बहुअवग्गहो पत्थि ति, एयसत्तिसहियएयमणभुवगमादो । अणेयसत्तिसहियमणदव्वन्भुवगमे पुण अस्थि बहुअवग्गहो, तत्थ विरोहाभावादो। ___* णोआर्गमदो भावकसाओ कोहवेयओ जीवो वा जीवा वा कोहकसाओ। ___ समाधान-क्योंकि एक क्षणमें एक शक्तिसे युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिये एक क्षणमें एक ही ज्ञान उत्पन्न होता है। शंका-यदि ऐसा है तो बहुअवग्रहका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-यह कहना ठीक है कि ऋजुसूत्रनयोंमें बहुअवग्रह नहीं पाया जाता है, क्योंकि इस नयकी दृष्टिसे एक क्षणमें एक शक्तिसे युक्त एक मन स्वीकार किया गया है। यदि अनेक शक्तियोंसे युक्त मनको स्वीकार कर लिया जाय तो बहुअवग्रह बन सकता है क्योंकि वहां उसके मानने में विरोध नहीं आता है। विशेषार्थ-ऋजुसूत्रनय वस्तुकी वर्तमानसमयवर्ती पर्यायको ही ग्रहण करता है और एक समयमें एक ही पर्याय होती है, इसलिये इस नयकी अपेक्षा कषायरसवाला एक द्रव्य कषाय और उससे अतिरिक्त एक द्रव्य नोकषाय कहा जायगा। तथा नाना जीवोंके द्वारा ग्रहण किये गये अनेक द्रव्य अवक्तव्य कहे जायंगे, क्योंकि यह नय एक समयमें अनेक पर्यायोंको स्वीकार नहीं करता है। यह नय एक समयमें अनेक विषयोंको नहीं ग्रहण करता है इसका कारण यह है कि इस नयकी अपेक्षा एक समयमें एक ही उपयोग होता है। और एक उपयोग अनेक विषयोंको ग्रहण नहीं कर सकता है अन्यथा उसे उपयोगबहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि इस नयकी अपेक्षा एक जीवके बहुत उपयोग कहे जावें तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि इसप्रकार उन अनेक उपयोगोंका आधार एक जीव नहीं हो सकता है किन्तु वह एक जीव अनेक उपयोगोंका आधार होनेसे अनेकरूप हो जायगा । अथवा जिह्वा इन्द्रिय एक है इसलिये एक समयमें एक कषायरसवाले द्रव्यका ही ग्रहण होगा अनेकका नहीं। इसका भी कारण एक कालमें एक शक्तिसे युक्त मनका पाया जाना है। इससे यह भी निश्चित हो जाता है कि इस नयकी अपेक्षा बहु अवग्रह आदि ज्ञान नहीं हो सकते हैं। इसप्रकार इस नयकी अपेक्षा कषायरसवाला एक द्रव्य कषाय है और उससे अतिरिक्त एक द्रव्य नोकषाय है तथा बहुत कषाय और नोकषाय द्रव्य अवक्तव्य हैं । * नोआगमभावनिक्षेपकी अपेक्षा क्रोधका वेदन करनेवाला एक जीव या अनेक (१) "कसायकम्मोदओ य भावम्मि।"-विशेषा० गा० २९८५। "भावकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्वजनप्रेष्यार्चादिनिमित्ताविर्भूताः शब्दादिकामगुणकारणकार्यभूतकषायकर्मोदयाद् आत्मपरिणामविशेषाः क्रोधमानमायालोभाः।"-आचा०नि०शी० गा० १९०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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