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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? कसायकरसाणि दव्वाणि कसाया तव्वदिरित्ताणि दव्वाणि णोकसाया त्ति अवत्तव्वं । ६२७८. अथवा, जिभिदिएण चेव रसोवगम्मदे, ण अण्णेण इंदिएण; अणुवलंभादो। ण चाणुमाणिजदि संभैरिजदि वा; सुमरणाणुमाणाणं सामण्णविसयाणं विसेसे उत्तिविरोहादो। ण च सामण्णमत्थि; विसेसेसु अणुगय-अतुट्टसरूवसामण्णाणुवलंभादो। ण चाणेयाणं दव्वाणं मुहपक्खित्ताणं रसमक्कमेण जिब्भाए जाणदि, विसेसविसयस्स जिभिदियस्स एगत्तादो एगेगदव्वरसे चेव एगक्खणे पउत्तिदंसणादो। ण च एगं जिब्भिदियमेगक्खणे अणेगेसु रसेसु वट्टदे विरोहादो। अविरोहे वा ण तमेगमिंदियं; णाणत्थेसु अकमेण वट्टमाणस्स एयत्तविरोहादो। तेण णाणाजीवपरिणामियं दव्वमवत्तव्वं । किमहमेगं चेव णाणमुप्पजइ; एगसत्तिसहियएयमणत्तादो । एवं संते बहुकरनेवाले ज्ञानके निमित्तसे उत्पन्न हुआ एक शब्द भी एक अर्थकोही विषय करता है। इसलिये 'जिनके रस कसैले हैं ऐसे अनेक द्रव्य कषाय हैं और उनसे अतिरिक्त अनेक द्रव्य नोकषाय हैं' यह भंग ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा अवक्तव्य है। ६२७८. अथवा, जिह्वा इन्द्रियके द्वारा ही रसका ज्ञान होता है, अन्य किसी भी इन्द्रियके द्वारा नहीं, क्योंकि जिह्वा इन्द्रियको छोड़कर दूसरी इन्द्रियोंके द्वारा रसका ग्रहण नहीं देखा जाता है। यदि कहा जाय कि जिह्वा इन्द्रियको छोड़कर अन्य इन्द्रियोंके द्वारा रसका ग्रहण नहीं होता है तो न सही, पर उसका स्मरण अथवा अनुमानके द्वारा ग्रहण तो किया जा सकता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्मरण और अनुमान सामान्य वस्तुको विषय करते हैं अतः उनकी विशेषमें प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है । तथा इस नयकी दृष्टि में सामान्य है भी नहीं; क्योंकि विशेषोंमें अनुगत और जिसकी सन्तान नहीं टूटी है ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि मुखमें डाले गये अनेक द्रव्योंका रस एकसाथ जिह्वा इन्द्रियसे जान लिया जाता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि रसविशेषको विषय करनेवाली जिह्वा इन्द्रिय एक ही है, इसलिये प्रत्येक क्षणमें उसकी एक एक द्रव्यके रसमें ही प्रवृत्ति देखी जाती है । अर्थात् जिह्वा इन्द्रिय एक समयमें एक ही द्रव्यका रस जानती है । यदि कहा जाय कि एक जिह्वा इन्द्रिय एक क्षणमें अनेक रसोंमें प्रवृत्ति करती है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि एक क्षणमें एक जिह्वा इन्द्रियकी अनेक रसोंमें प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वह एक इन्द्रिय नहीं हो सकती है, क्योंकि जो नाना अर्थों में एकसाथ प्रवृत्ति करती है उसे एक मानने में विरोध आता है। इसलिये नाना जीवोंकी बुद्धिके द्वारा विषय किया गया द्रव्य ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा अवक्तव्य है । शंका-एक कालमें एक ही ज्ञान क्यों उत्पन्न होता है ? (१) संमरि-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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