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________________ गा० १३-१४ ] कसा क्खेिवपरूवणा ३१३ तव्वदिरित्ताणि दव्वाणि णोकसाया त्ति उजुसुदस्स अवत्तव्वं । कुदो ? णाणाजीवेहि परिणामिदत्तादो । तं जहा, 'णाणाजीवेहि परिणामियाणि' 'णापाजीवाणं बुद्धीए विसयीकयाणि' त्ति भणिदं होदि । एदस्स णयस्स अहिप्पारण एगजीवस्स बुद्धीए एक्कम्मि खणे एक्को चेव अत्थो घेप्पदि णाणेयत्था ति । एयस्स जीवस्स अणेयकसायविसयाओ बुद्धीओ अकमेण किण्ण उप्पजंति ! ण; एगउवजोगस्स अणेगेसु दव्वेसु अक्कमेण उत्तिविरोहादो | अविरोहे वाण सो एक्को उवजोगो; अणेगेसु अत्थेसु अक्कमेण वट्टमास यत्त-विरोहादो। ण च एयस्स जीवस्स अकमेण अणेया उवजोआ संभवंति विरुद्धधम्मज्झासेण जीवबहुत्तप्पसंगादो । ण च एओ जीवो अणेयत्तमल्लियह; विरोहादो । तदो विसयीकयरयत्थणाणादी समुप्पण्णेगसदो वि एयत्थविसओ चेय । तेण ऐसे अनेक द्रव्य कषाय हैं और इनसे अतिरिक्त द्रव्य नोकषाय हैं यह ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा अवक्तव्य भंग है । शंका- यह भंग ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा अवक्तव्य क्यों है ? समाधानन - क्योंकि बहुत कषाय और बहुत नोकषाय नाना जीवोंकी नाना बुद्धिके विषय हैं, इसलिये वे ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा अवक्तव्य हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है'नाना जीवोंके द्वारा परिणामितका अर्थ ' अनेक जीवोंकी बुद्धिके द्वारा विषय किये गये ' होता है । और इस नयके अभिप्राय से एक जीवकी बुद्धिके द्वारा एक समयमें एक ही अर्थ गृहीत होता है, अनेक अर्थ नहीं । शंका- एक जीवके अनेक कषायविषयक बुद्धियां एकसाथ क्यों नहीं उत्पन्न होती हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि इस नयकी अपेक्षा एक उपयोगकी एक साथ अनेक द्रव्यों में प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि एक साथ एक उपयोग इसमें कोई विरोध नहीं है, सो भी कहना ठीक नयकी अपेक्षा वह एक उपयोग नहीं हो सकता है, है उसे एक माननेमें विरोध आता है । यदि कहा जाय कि एक जीवके एकसाथ अनेक उपयोग संभव हैं, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विरुद्ध अनेक धर्मोका आधार हो जानेसे उस एक जीवको जीवबहुत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् परस्पर में विरुद्ध अनेक अर्थोंको विषय करनेवाले अनेक उपयोग एक जीव में एक साथ माननेसे वह जीव एक नहीं रह सकता है उसे अनेकत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि एक जीव अनेकपनेको प्राप्त हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है । अतः एक अर्थको विषय ( १ ) ण एसो अ० । ४० अनेक द्रव्योंमें प्रवृत्ति कर सकता है, नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर इस क्योंकि जो एकसाथ अनेक अर्थों में रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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