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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? तीदो, ववहारसंकरप्पसंगादो वा । होदु चे; ण तहाणुवलंभादो। जत्थ बहुवयणेण दव्वमुद्दिटं तत्थ 'कसाया' त्ति बहुवयणंतेणेव वत्तव्यं, अण्णहा परटं कीरमाणस्स सद्दववहारस्स अभावो होज, फलाभावादो । * उजुसुदस्स कसायरसं दव्वं कसाओ, तव्वदिरितं दव्वं णोकसाओ । णाणाजीवेहि परिणामियं दव्वमवत्तव्वयं । $२७७. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा, कसायरसाणि दव्याणि कसाया, .शंका-जो वस्तु एकवचनरूपसे निर्दिष्ट है उसे बहुवचनरूपसे कहने पर यदि संदेह उत्पन्न होता है और संकरदोष प्राप्त होता है तो होओ ? समाधान-नहीं, क्योंकि सन्देह तथा संकरदोष युक्त व्यवहार नहीं देखा जाता है। तथा जहां बहुवचनरूपसे द्रव्यका निर्देश किया गया हो वहां 'कषायाः' इसप्रकार बहुवचनान्त ही प्रयोग करना चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो निष्फल होनेसे दूसरेको समझानेके लिये किये गये शब्द व्यवहारका अभाव हो जायगा, अर्थात् इसप्रकारके शब्द व्यवहारसे श्रोताको विवक्षित अर्थका बोध न हो सकेगा और इसलिये उसका करना और न करना बराबर हो जायगा । विशेषार्थ-नैगमनय भेदाभेदको गौणमुख्यभावसे ग्रहण करता है और संग्रहनय एक या अनेकको एक रूपसे ग्रहण करता है, अतएव इन दोनों नयोंकी अपेक्षा कसैले रसवाले एक या अनेक द्रव्योंको एकवचन कषायशब्दके द्वारा कहने में कोई आपत्ति नहीं है। पर व्यवहारनय एकको एकवचनके द्वारा और बहुतको बहुवचनके द्वारा ही कथन करेगा, क्योंकि यह नय भेदकी प्रधानतासे वस्तुको स्वीकार करता है। फिर भी यदि इस नयकी अपेक्षा एकको बहुवचनके द्वारा कहा जाय तो एक तो श्रोताको यह सन्देह हो जायगा कि वस्तु एक है और यह उसे वहुवचनके द्वारा कह रहा है इसका क्या कारण है। दूसरे एकको बहुवचनके द्वारा कहनसे एकवचन आदिका कोई नियम नहीं रहता है सभी वचनोंकी एक स्थान पर ही प्राप्ति हो जाती है अतः संकरदोष आ जाता है। इसीप्रकार बहुतको यदि एकवचनके द्वारा कहा जाय तो भी यह वचनव्यवहार पूर्वोक्त प्रकारसे निष्फल हो जाता है। अतः नैगम और संग्रह नय एक या अनेकको एकवचनके द्वारा और व्यवहारनय एकको एकवचनके द्वारा और बहुतको बहुवचनके द्वारा कथन करता है यह निश्चित हो जाता है। * ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा जिसका रस कसैला है ऐसा एक द्रव्य कषाय है और उससे अतिरिक्त द्रव्य नोकषाय है। तथा नाना जीवोंके द्वारा परिणामित द्रव्य अवक्तव्य है। $ २७७. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-जिनके रस कसैले हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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