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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? ६२७६. आगमभावकसाओ सुगमो त्ति तस्स विवरणमभणिय णोआगमभावकसायस्स विवरणं जइवसहाइरिएण भणिदं । कोहोदयसहिदजीवो जीवा वा कोहकसाओ त्ति भणंति णेगमसंगहणया । बहुआणं कथमेयत्तं ? जाईए । एवं संते ववहारसंकरो पसजदि त्ति भणिदे; ण; तेसिं लोगसंववहारविसयअवेक्खाभावादो । ववहार-उजुसुदाणं पुण जहा रसकसायम्मि उत्तं तहा वत्तव्वं अविसेसादो । सद्दणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। - * एवं माण-माया-लोभाणं । जीव क्रोधकषाय है। ६२७६. आगमभावकषायका स्वरूप सरल है इसलिये उसके स्वरूपको न कह कर यतिवृषभ आचार्यने नोआगमभावकषायका स्वरूप कहा है। क्रोधके उदयसे युक्त एक जीव या अनेक जीव क्रोधकषाय है इसप्रकार नैगमनय और संग्रहनय प्रतिपादन करते हैं। शंका-बहुतोंको एकत्व कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् बहुत जीवोंके लिये एक वचनरूप कषायशब्दका प्रयोग कैसे संभव है ? समाधान-जातिकी अपेक्षा बहुतोंको एक माननेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिये बहुत जीवोंके लिये एक वचनरूप कषायशब्दका प्रयोग बन जाता है । शंका-ऐसा मानने पर व्यवहारमें संकरदोषका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि नैगमनय और संग्रहनय लोकसंव्यवहारविषयक अपेक्षासे रहित है। व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा जिसप्रकार रसकषायमें कथन कर आये हैं उसीप्रकार नोआगमकषायमें भी कथन करना चाहिये, क्योंकि दोनोंके कथनोंमें कोई अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-व्यवहारनय एकको एकवचनके द्वारा और बहुतको बहुवचनके द्वारा स्वीकार करता है, इसलिये इस नयकी अपेक्षा क्रोधके उदयसे युक्त एक जीव नोआगमभावक्रोधकषाय है और क्रोधके उदयसे युक्त अनेक जीव नोआगमभावक्रोधकषाय हैं । तथा ऋजुसूत्र एक कालमें एकको ही ग्रहण करता है अनेकको नहीं, इसलिये इस नयकी अपेक्षा क्रोधके उदयसे युक्त एक जीव नोआगमभावक्रोधकषाय है और क्रोधके उदयसे युक्त अनेक जीव अवक्तव्य हैं। शब्दनयकी अपेक्षा क्रोधका उदय ही क्रोधकषाय है, क्योंकि शब्दनयके विषयमें द्रव्य नहीं पाया जाता है। * जिसप्रकार ऊपर क्रोधकषायका कथन किया है उसीप्रकार मान, माया और (१) एवं माया-अ०, आ०, स०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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