SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३-१४ ] here furdayaणा ३०५ विरोहादो; र्ण; कसायसमाणत्तणेण बहुवाणं पि दव्वाणमे यत्तु वलंभादो । णिबंब-सजसिरिसकसायाणं भेदुवलंभादो ण कसायाणमेयत्तमिदि चे; णः कसायसामण्णदुवारेण तेसिमेयत्तदंसणादो । किं' तं कसायसामण्णं ? सँगण्णयवदिरेगेहि कसायपच्चय-ववहाराहिहाणीण मण्णय - वदिरे गणिमित्तं । तदुवारेण दव्वाणं सरिसत्तं होदि णेयत्तं चे; ण; सरिसेगसद्दाणमत्थभेदाभावादो । पुधभूदेसु सरिसत्तं चिहदि ति चे; ण; उड्ढाहोमादिभेण भिण्णेसु चेय एयत्तुवलंभादो । एयत्तवदिरित्ता के ते उढादिभेया ? नहीं है, क्योंकि अनेक संख्यावाले द्रव्योंको एक माननेमें विरोध आता है । इस शंकाका तात्पर्य यह है कि सूत्रमें कषाय शब्द एकवचन है अतः उसका एकवचन द्रव्यशब्द के साथ तो सम्बन्ध ठीक बैठ जाता है किन्तु बहुवचन द्रव्य शब्द के साथ उसका सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता । किन्तु ग्रन्थकार उसे एकवचन द्रव्यशब्द के भी साथ लगाते हैं और बहुवचन द्रव्याणिके साथ भी लगाते हैं । समाधान- नहीं, क्योंकि कषायसामान्यकी अपेक्षा कषायरसवाले बहुत द्रव्योंमें भी एकत्व पाया जाता है, इसलिये 'कसायरसं दव्वं कसाओ' की तरह 'कसायरसाणि दव्वाणि कसाओ' प्रयोग भी बन जाता है । शंका- नीम, आम, सर्ज और शिरीष आदि भिन्न भिन्न जातिकी कषायों में भेद पाया जाता है, इसलिये सभी कषायोंको एक नहीं कहा जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि कषायसामान्यकी अपेक्षा नीम आदि कषायों में एकपना देखा जाता है । शंका- वह कषाय सामान्य क्या वस्तु है ? समाधान - जो अपने अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा सभी कषायोंमें कषायविषयक ज्ञान, कषायविषयक व्यवहार और कषाय इत्याकारक शब्द के अन्वय और व्यतिरेकका कारण है वह कषाय सामान्य है । शंका-कषायसामान्यके द्वारा अनेक द्रव्योंमें सदृशता हो सकती है एकत्व नहीं ? समाधान- नहीं, क्योंकि सदृश और एक इन दोनों शब्दों में अर्थभेद नहीं है । शंका- पृथक पृथक रहनेवाले पदार्थों में सदृशता ही पाई जाती है एकता नहीं ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऊपरका भाग, नीचेका भाग और मध्यभाग इत्यादिकके भेदसे पदार्थों में भेद होते हुए भी उनमें जिसप्रकार एकता देखी जाती है । अर्थात् जैसे अवयवभेद होते हुए भी पदार्थ एक हैं । उसीप्रकार सादृश्यसामान्यकी अपेक्षा दो पदार्थ भी एक हैं । यदि कहा जाय कि एकत्वको छोड़कर वे ऊपरला भाग आदि क्या हैं ? अर्थात् (१) ण चक- अ० आ० । (२) किन्तु क- अ० आ० । ( ३ ) - सगणय - अ० अ० । ( ४ ) - णाण माणय-अ० आ० । ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy