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________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णकसासु समुप्पत्तियकसाय - आदेसकसायाणं जहाकमेण पवेसादो । * रसर्कसाओ णाम कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा कसाओ । ६२७०. 'रसः कषायोऽस्य रसकषायः' इति व्युत्पत्तेः रसकषायशब्दो द्रव्ये वर्तते द्रव्यकषाये नायमन्तर्भवति 'शिरीषस्य कषायः शिरीषकषायः' इति तस्योत्तरपदप्राधान्यात् । ' कसायरसं दव्वं कसाओ' त्ति एदं जुत्तं, दव्वकसायसहाणमेयत्तेण विदेसादो, 'कसायरसाणिदव्वाणि कसाओ' त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे; अणेयसंखाणं दव्वाणमेयत्त [ पेज्जदोस विहत्ती ? आदेशकषायका अन्तर्भाव हो जाता है । विशेषार्थ - शेष नयोंकी अपेक्षा प्रत्ययकषायमें समुत्पत्तिककषायका और स्थापनाकषायमें आदेशकषायका अन्तर्भाव हो जाता है । इसका यह अभिप्राय है कि शेष नय चारों कषायोंको भेदरूपसे स्वीकार नहीं करते हैं । इसलिये उनकी अपेक्षा प्रत्ययकषाय में समुत्पत्तिककषायका और स्थापना कषाय में आदेशकषायका अन्तर्भाव कहा है । यहां शेष नय से संग्रह और व्यवहारनय लिये गये हैं। क्योंकि ऋजुसूत्र आदि चारों नयोंके ये चारों ही कषाय अविषय हैं जिसका खुलासा ऊपर किया जा चुका है । * जिस द्रव्य या जिन द्रव्योंका रस कसैला है उस या उन द्रव्योंको रसकषाय कहते हैं । ९२७०. 'जिसका रस कसैला है उसे रसकषाय कहते हैं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार रसकषाय शब्द द्रव्यवाची है उसका द्रव्यकषायमें अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि 'शिरीषस्य कषायः शिरीषकषायः' की तरह द्रव्यकषाय उत्तरपदप्रधान होती है । विशेषार्थ - ' जिसका रस कसैला है' यहां बहुव्रीहिसमास है और बहुव्रीहिसमास अन्य पदार्थ प्रधान होता है, अतः रसकषाय शब्द द्रव्यवाची हो जाता है, क्योंकि रसकषाय शब्द विशेष्य न रह कर बहुब्रीहि समासके द्वारा द्रव्यका विशेषण बना दिया गया है । इस रसकषाय शब्द में बहुव्रीहि समास होनेके कारण इसे रसवाची नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि रसवाची शिरीषकषाय शब्द में बहुव्रीहि समास न होकर तत्पुरुष समास है । तत्पुरुष समासमें उत्तर पदार्थ प्रधान रहता है । अतः शिरीषकषाय में पूर्व पदार्थ शिरीष द्रव्यकी या किसी अन्य पदार्थकी प्रधानता न होकर उत्तर पदार्थ कषायरस की प्रधानता है । शंका- जिसका रस कसैला है उस द्रव्यको कषाय कहते हैं ऐसा कहना तो ठीक है, क्योंकि सूत्रमें द्रव्य और कषाय शब्दका एक बचनरूपसे निर्देश किया है । परन्तु जिनका रस कसैला है उन द्रव्योंको कषाय कहते हैं, ऐसा जो कथन किया है वह संगत (१) द्रष्टव्यम् - पृ० २८३ टि० ३ । (२) " रसओ रसो कसाओ ।" - विशेषा० गा० २९८५ । "रसतो रसकषायः कटुतिक्तकषायपञ्चकान्तर्गतः । " - आचा० नि० शी० गा० १९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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