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________________ गा० १३-१४ ] here furdayaणा ३०३ $२६७, पंपा णाम लंपडत्तं, सयलपरिग्गहगहणहं हिययस्स विकासो णिव्वाइदं णाम, तेण णिव्वाइदेण सह पंपागहिदमणुस्सो आलिहिदो लोहो होदि । * एवमेदे कडुकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसाओ णाम । $२६८. एदेसिं चित्तयम्मे लिहिदाणं चेव आदेसकसायत्तं होदि त्ति नियमो अस्थि (स्थि) किंतु एक कम्मे वा पोत्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा सेलकम्मे वा कया वि आदेसकसाओ होंति त्ति भणिदं होदि । 'कसाओ' त्ति एयवयणणिद्देसो बहुवाणं कथं जुञ्जदे ? एस दोसो; कसायत्तं पडि एयत्तुवलंभादो | * एदं णेगमस्स । २६६. एदमिदि उत्ते समुत्पत्तियकसाया आदेसकसायां च घेत्तव्वा । तेणेवं संबंधो कायव्वो, एदं कसायदुवं णेगमस्स णेगमणए संभवदि ण अण्णत्थ, सेसणएसु पच्चय-वकी जाती है वह आदेशकषायकी अपेक्षा लोम है । $२६७, सूत्रमें आये हुए पंपा शब्दका अर्थ लम्पटता है और णिव्वाइद शब्दका अर्थ समस्त परिग्रहके ग्रहण करनेके लिये चित्तका विकाश अर्थात् चित्तका ललचना या लालसायुक्त होना है । इसप्रकार संसार भरके परिग्रहको अपनानेकी लालसासे युक्त लम्पटी मनुष्यकी जो आकृति चित्रमें अंकितकी जाती है वह आदेशकषायकी अपेक्षा लोभ है । * इसीप्रकार काष्ठकर्ममें या पोतकर्म में लिखे गये क्रोध, मान, माया और लोभ आदेशकषाय कहलाते हैं । ९२६८. चित्रमें ही लिखे गये क्रोध, मान, माया और लोभ आदेशकषाय होते ऐसा कोई नियम नहीं हैं किन्तु लकड़ी पर उकेरे गये, वस्त्र पर छापे गये, भित्ति पर चित्रित किये गये और पत्थर में खोदे गये क्रोध, मान, माया और लोभ भी आदेश कषाय हैं ऐसा उक्त कथनका तात्पर्य समझना चाहिये । शंका- सूत्रमें 'आदेसकसाओ' इसप्रकार कषायका एक वचनरूपसे उल्लेख किया है, वह अनेक क्रोधादिकके लिये कैसे युक्त हो सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कषाय सामान्यकी अपेक्षासे उन सब क्रोधादिकोंमें एकत्व पाया जाता है, इसलिये 'आदेसकसाओ' ऐसा एकवचन निर्देश बन जाता है । * ये दोनों समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषाय नैगमनय में संभव हैं । ९२६१. सूत्रमें आये हुए 'ए' पदसे समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषाय लेना चाहिये । इसलिये ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि ये दोनों कषाय नैगमनयमें संभव हैं अन्य नयों में नहीं, क्योंकि शेष नयोंकी अपेक्षा प्रत्ययकषाय में समुत्पत्तिककषायका और स्थापनाकषाय में (१) णिव्वाइतेण अ०, आ०, स० । ( २ ) - साया घे - स० । (३) एवं स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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