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________________ ३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ ६२६१. दोण्हं भंगाणं पुव्वमत्थो परूविदो । संपहि सेसभंगाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा, बहुआ वि जीवा कोहुप्पत्तीए कारणं होंति; सत्तुस्सेणं दह्रण कोहुप्पत्तिदंसणादो। णोजीवा बहुआ वि कोहुप्पत्तीए कारणं होंति, अप्पणो अणि?णोजीवसमूहं दट्टण कोहुप्पत्तिदंसणादो। जीवो णोजीवो च कोहुप्पत्तीए कारणं होंतिसखग्गरिउदंसणेण कोहुप्पत्तिदसणादो। जीवा णोजीवो च कारणं होंति; अप्पणो अणिष्ठेगणोजीवेण सह सत्तुस्सेण्णं दट्टण तदुप्पत्तिदसणादो। जीवो णोजीवा च कारणं होंति; सकोअंड-कंडरित्रं दट्टण तदुप्पत्तिदंसणादो । जीवा णोजीवा च कारणं होंति; असि-परसु-कोंत-तोमररेह-सेंदणसहियरिउबलं दट्टण तदुप्पत्तिदंसणादो । * एवं माण-माया-लोभाणं । ६२६२. एत्थ 'वत्तव्वं' इदि किरियाए अज्झाहारो कायम्वो, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तीदो। कधं णोजीवे माणस्स समुप्पत्ती ?ण; अप्पणो रूव-जोवणगव्वेण वत्थालंका ६२६१. दो भंगोंका अर्थ पहले कह आये हैं। अब शेष भंगोंका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-बहुत जीव भी क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि अपने शत्रुकी सेनाको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। तथा बहुत अजीव भी क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि अपने लिये अनिष्टकर अजीवोंके समूहको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। एक जीव और एक अजीव ये दोनों भी क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि तलवार लिये हुए शत्रुको देखनेसे क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। अनेक जीव और एक अजीव भी क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि अपने लिये अनिष्टकारक एक अजीवके साथ शत्रुकी सेनाको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। कहीं एक जीव और अनेक अजीव क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि धनुष और बाण सहित शत्रुको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। कहीं अनेक जीव और अनेक अजीव क्रोधकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं, क्योंकि तरवार, फरसा, भाला, तोमर नामक अस्त्र, रथ और स्यन्दन सहित शत्रुकी सेनाको देखकर क्रोधकी उत्पत्ति देखी जाती है। * जिसप्रकार समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोधका कथन कर आये हैं इसीप्रकार मान, माया और लोभका भी कथन करना चाहिये । ६२६२. इस सूत्रमें ‘वत्तव्वं ' इस क्रियाका अध्याहार कर लेना चाहिये, क्योंकि उसके बिना सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है। शका-अजीवके निमित्तसे मानकी उत्पत्ति कैसे होती है ? समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवनके गर्वसे (१)-सहावं द-आ० ।-सरूवं द-अ० । (२) रहस्सेंदण-अ०, आ०। (३) तमुप्प-प्र०, आ० । (४)-जोवण्णग-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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