SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३-१४ ] कसाए णिक्खेवपरूवणा २६६ णमुच्चारणदुवारेण "ज पडुच्च कोहो समुप्पजइ सो समुप्पत्तियकसारण कोहो ओ (?)" त्ति पुव्वमवगयत्थो चेव परूविदो। णेसो पुणरुत्तं; अह-भंगुच्चारणमुहेण सेसभंगाणमत्थपरूवणफलत्तादो। सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिये आठों भंगोंके नामोच्चारणद्वारा 'जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जइ सो समुप्पत्तियकसाएण कोहो' इसप्रकारसे पूर्व ज्ञात अर्थका ही कथन किया है किन्तु यह कथन पुनरुक्त दोषसे युक्त नहीं है, क्योंकि इसका फल आठ भंगोंके नामोच्चारणके द्वारा शेष भंगोंके अर्थका कथन करना है। विशेषार्थ-यतिवृषभ आचार्य पहले 'समुप्पत्तिय कसाओ णाम कोहो सिया जीवो सिया णोजीवो एवमट्ठभंगा' इस सूत्रके द्वारा प्रारंभके दो भंगोंको गिनाकर उसीप्रकार आठों भंगोंके कहनेकी सूचना कर आये हैं। फिर भी 'एवं जं पडुच्च कोहो समुप्पज्जदि' इत्यादि सूत्रके द्वारा उन्हीं आठों भंगोंका निर्देश करते हैं। इसप्रकार एक ही विषयको पुनः कहनेसे पुनरुक्त दोष प्राप्त होता है जो कि किसी भी हालतमें इष्ट नहीं है। इस पर वीरसेनस्वामीका कहना है कि यद्यपि एक ही विषय दो बार कहा गया है फिर भी पुनरुक्त दोष नहीं आता है, क्योंकि आदिके दो भंगोंकी अर्थप्ररूपणा स्वयं चूर्णिसूत्रकारने ऊपर ही कर दी है पर शेष छह भंगोंकी समुच्चयरूपसे केवल सूचना ही की है। उनकी अर्थप्ररूपणा किसप्रकार करना चाहिये यह नहीं बतलाया है जिसके बतानेकी अत्यन्त आवश्यकता थी। अतः दूसरी बार जो आठों भंगोंके नाम गिनाये हैं वे पुनः गिनाये जानेसे व्यर्थ हो जाते हैं फिर भी वे जिन छह भंगोंकी ऊपर अर्थप्ररूपणा नहीं की है उसे सूचित करते हैं इसलिये उनका पुनः गिनाया जाना सार्थक है। आठ भंगोंका नाम पुनः गिनाये जानेसे यह मालूम हो जाता है कि जिसप्रकार प्रारंभके दो भंगोंकी अर्थप्ररूपणा कर आये हैं उसीप्रकार शेष छह भंगोंकी भी कर लेना चाहिये । उसका खुलासा इसप्रकार है-जहां अनेक जीवोंके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहाँ समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा वे अनेक जीव क्रोध हैं। जहां अनेक अजीवोंके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहां वे अनेक अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध हैं। जहाँ एक जीव और एक अजीवके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहाँ वह एक जीव और एक अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध है। जहाँ एक जीव और अनेक अजीवोंके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहाँ वह एक जीव और अनेक अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध हैं। जहाँ अनेक जीव और एक अजीवके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहाँ वे अनेक जीव और एक अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध हैं । जहाँ अनेक जीव और अनेक अजीवोंके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वहाँ वे अनेक जीव और अनेक अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध हैं। इन छहों भंगोंके उदाहरण क्रमशः स्वयं टीकाकारने आगे दिये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy