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________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पेज्जदोसविहत्ती ? * कधं ताव णोजीवो? 8 २५८. जीवो जीवस्स ताडण-सेहण-बंधण-चोंकण-णेल्लंछणादिवावारेण कोह मुप्पादेदि त्ति ताव जुत्तं; णोजीवो सयलवावारविरहिओ कोहमुप्पादेदि ति कथं जुञ्जदे ? एदमक्खेवं जइवसहाइरिएण मणम्मि काऊण सुत्तमेदं परूविदं । * कटं वा लेंडे वा पडुच्च कोहो समुप्पपणोतं कटं वा लेंडुं वा कोहो। $ २५६. वावारविरहिओ णोजीवो कोहं ण उप्पादेदि त्ति णासंकणिज्ज; विद्धपायकंटए वि समुप्पजमाणकोहुवलंभादो, सगंगलग्गलेंडुअखंडं रोसेण दसंतमक्कडुवलंभादो च। सेसं सुगम अदीदसुत्ते परूविदत्तादो । * एवं जं पडुच्च कोहो समुप्पजदि जीवं वा णोजीवं वा जीवे वा णोजीवे वा मिस्सए वा सो समुप्पत्तियकसाएण कोहो । ६२६०. जहा जीव-णोजीवाणं एगसंखाए विसिहाणं परूवणा कदा एवं सेसभंगाणं पि परूवणा कायव्वा त्ति भैणंतेण जइवसहाइरिएण अंतेवासीणं सुहप्पबोहणहमट्टण्हं भंगा * समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा अजीव क्रोध कैसे है ? 8 २५८. 'मारना, सजा देना, बांधना, चोंकना और शरीरके किसी अवयवका छेदना आदि व्यापारोंके द्वारा जीव जीवके क्रोध उत्पन्न करता है, यह तो युक्त है परन्तु समस्त व्यापारोंसे रहित अजीव जीवके क्रोध उत्पन्न करता है यह कैसे बन सकता है' इस आक्षेपको मनमें करके यतिवृषभ आचार्यने उक्त सूत्र कहा है। * जिस लकड़ी अथवा इंट आदिके टुकड़ेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा वह लकड़ी या इंट आदिका टुकड़ा क्रोध है। २५१. ताड़न मारण आदि व्यापारसे रहित अजीव क्रोधको उत्पन्न नहीं करता है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि जो कांटा पैरको बींध देता है उसके ऊपर भी क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है। तथा बन्दरके शरीर में जो पत्थर आदि लग जाता है रोषके कारण वह उसे चबाता हुआ देखा जाता है। इससे प्रतीत होता है कि अजीव भी क्रोधको उत्पन्न करता है। शेष कथन सुगम है, क्योंकि इससे पहले सूत्रमें शेष कथनका प्ररूपण कर आये हैं। * इसप्रकार एक जीव या एक अजीव, अनेक जीव या अनेक अजीव, या मिश्र इनमेंसे जिसके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध है। ६२६०. एक जीव और एक अजीवकी प्ररूपणा ऊपर जिसप्रकार की है उसीप्रकार शेष भंगोंकी भी प्ररूपणा कर लेना चाहिये इसप्रकार कहते हुए यतिवृषभ आचार्यने शिष्योंको (१) लेंडुच्च को-अ०, आ०, स० । (२)-खंड रो-अ०, आ० । (३) मणं-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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