SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३.१४] कसाए णिक्खेवपरूवणा २६७ ६२५७.जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो तत्तो पुधभूदो संतो कथं कोहो ? होत एसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किंतु णइगमणओ जयिवसहाइरिएण जेणावलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो ? कारणम्मि णिलीणकजब्भुवगमादो । तं जहा, णासंतकजमुप्पजइ; असंदकरणादो उवायाणग्गहणादो सव्वसंभवाभावादो सत्तस्स सकिजमाणस्सेव करणादो कारणभावादो चेदि । तदो कारणेसु कजं पुव्वं पि अस्थि ति इच्छियव्वं, णायागयरस परिहरणोवायाभावादो । होदु पिंडे घडस्स अत्थित्तं सत्त-पमेयत्त-पोग्गलत्त-णिच्चेयणत्त-मट्टियसहावत्तादिसरूवेण, ण दंडादिसु घटो अत्थि तत्थ तब्भावाणुवलंभो त्ति; ण तत्थ वि पमेयत्तादिसरूवेण तदत्थित्तुवलंभादो । तम्हा जे पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो वि कोहो ति सिद्धं । ६२५७.शंका-जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है ? समाधान-यदि यहां पर संग्रह आदि नयोंका अवलंबन लिया होता तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयोंकी अपेक्षा क्रोधसे भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किन्तु यतिवृषभ आचार्यने चूंकि यहां पर नैगमनयका अवलंबन लिया है इसलिये यह कोई दोष नहीं है। शंका-नैगमनयका अवलंबन लेने पर दोष कैसे नहीं है ? समाधान-क्योंकि नैगमनयकी अपेक्षा कारणमें कार्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है, इसलिये दोष नहीं है। उसका खुलासा इसप्रकार है-जो कार्य असद्रूप है वह नहीं उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि असत्की उत्पत्ति नहीं होती है, कार्य के उपादान कारणका ग्रहण देखा जाता है, सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पाई जाती है, जो कारण जिस कार्यको करनेमें समर्थ है वह उसे ही करता है तथा कारणोंका सद्भाव पाया जाता है। इसलिये कारणोंमें कार्य शक्तिरूपसे कार्योत्पत्तिके पहले भी विद्यमान है यह स्वीकार कर लेना चाहिये, क्योंकि जो बात न्यायप्राप्त है उसके निषेध करनेका कोई उपाय नहीं है । शंका-मिट्टीके पिंडमें सत्त्व, प्रमेयत्व, पुद्गलत्व, अचेतनत्व और मिट्टीस्वभाव आदि रूपसे घटका सद्भाव भले ही पाया जाओ, परन्तु दंडादिकमें घटका सद्भाव नहीं है, क्योंकि दंडादिकमें तद्भावलक्षण सामान्य अर्थात् मिट्टीस्वभाव नहीं पाया जाता है। समाधान-नहीं, क्योंकि दंडादिकमें भी प्रमेयत्व आदि रूपसे घटका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिये जिसके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न हुआ है वह भी क्रोध है यह सिद्ध हुआ। (१) होति अ०, आ०, स०। (२) णिलीणे कज्ज-अ०। (३) तुलना-"असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥"-सांख्यका० ९। ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy