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________________ गा० १३-१४ ] कसाए णिक्खेवपरूणां रादिसु समुव्वहमाणमाणत्थी-पुरिसाणमुवलंभादो । सेसं सुगमं । * आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो रुसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि काऊण । २६३. भिडडिं काऊण भृकुटिं कृत्वा, तिवलिदणिडालो त्रिवलितनिटलः, भृकुटिहेतोः त्रिवलितनिटल इत्यर्थः । एवं चित्रकर्मणि लिखितः क्रोधः आदेशकषायः । २६४. आदेसकसाय-श्रवणकसायाणं को भेओ ? अत्थि भेओ, सब्भाववणा कसायपरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसब्भावासब्भावठवणा हवणकसाओ, तम्हा ण पुणरुत्तदोसो त्ति । वस्त्र और अलंकार आदिमें मानको धारण करनेवाले स्त्री और पुरुष पाये जाते हैं । अर्थात् वस्त्र अलंकार आदिके निमित्तसे स्त्री और पुरुषोंमें मानकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिये समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं । शेष कथन सुगम है। * भोंह चढ़ानेके कारण जिसके ललाटमें तीन बली पड़ गई हैं चित्रमें अंकित ऐसा रुष्ट हुआ जीव आदेशकषायकी अपेक्षा क्रोध है । २६३. 'तिवलिदणिडालो भिउदि काऊण' इस पदका अर्थ, भोंह चढ़ानेके कारण जिसके ललाटमें तीन बली पड़ गईं हैं, होता है । इसप्रकार चित्र कर्ममें अङ्कित जीव आदेशकषायकी अपेक्षा क्रोध है। २६४. शंका-यदि चित्रमें लिखित क्रोध आदेशकषाय है तो आदेशकषाय और स्थापनाकषायमें क्या भेद है ? समाधान-आदेशकषाय और स्थापनाकषायमें भेद है, क्योंकि सद्भावस्थापना, कपायका प्ररूपण करना और यह कषाय है इसप्रकारकी बुद्धिका होना आदेशकषाय है । तथा कषायकी सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना करना स्थापनाकषाय है। इसलिये आदेशकषाय और स्थापनाकषायका अलग अलग कथन करनेसे पुनरुक्त दोष नहीं आता है। विशेषार्थ-पहले आदेशकषायका स्थापनाकषायमें अन्तर्भाव करते समय यह बतला आये हैं कि आदेशकषाय सद्भावस्थापनारूप है और स्थापनाकषाय कषायविषयक सद्भाव और असद्भाव दोनों प्रकारकी स्थापनारूप है। यहाँ पर दोनोंमें भेद दिखलाते हुए जो यह लिखा है कि सद्भावस्थापना, 'यह कषाय है' इसप्रकारकी प्ररूपणा और 'यह कषाय है' इसप्रकारकी बुद्धि यह सब आदेशकषाय है और कषायविषयक दोनों प्रकारकी स्थापना स्थापना (१) माणेत्थी-अ०, आ०। (२) "आएसओ कसाओ कइयवकय भिउडिभंगुराकारो । केई चित्ताइगओ ठवणाणत्यंतरो सोऽयं ॥"-विशेषा० गा० २९८४ । "आदेशकषायाः कृत्रिमकृतभुकुटीभङ्गादयः।" -आचा० नि० शो० गा० १९०। (३)-टिं वक्तृत्वात् ति-स० । (४)-त्वा तत्तिव-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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