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गा०१३-१४] दोसे णिक्खेवपरूवणा
२७७ ६२२५. कुदो ? भावपेजभावदोसाणमेगवारेण बारसअणियोगद्दारेहि परूवणटं । पुध-पुधतत्तिएहि अणियोगद्दारेहि तेसिं परूवणा किण्ण कीरदे ? ण; गंथस्स बहुत्तप्पसंगादो, पुधपरूवणाए फलाणुवलंभादो च ।।
* दोसो णिक्खिवियव्वो णामदोसो हवणदोसो दव्वदोसो भावदोसो चेदि।
२२६. ताव णिक्खेवसुत्तत्थं मोत्तूण णिक्खेवसामिणयपरूवणं कस्सामो। कुदो? इमो णिक्खेवो इमस्स णयरस विसयभूदो ति जाव णावगदं ताव णिक्खेवत्थावगमाभावादो।
* णेगम-संगह-ववहारा सव्वे णिक्खेवे इच्छंति । ६२२७. सुगममेदं पुव्वं बहुसो परूविदत्तादो। * उजुसुदो हवणवजे । ६ २२५. शंका-भावपेज्जका कथन स्थगित क्यों करते हैं ?
समाधान-चूंकि भावपेज्ज और भावदोष इन दोनोंका एक साथ बारह अनुयोगद्वारोंके द्वारा कथन किया जायगा इसलिये यहां भावपेजका कथन स्थगित करते हैं।
शंका-बारह अनुयोगद्वारोंके द्वारा भावपेज्ज और भावदोषकी प्ररूपणा पृथक् पृथक क्यों नहीं की?
समाधान-नहीं, क्योंकि भावपेज्ज और भावदोषका बारह अनुयोगद्वारोंके द्वारा पृथक् पृथक् प्ररूपण करनेसे ग्रन्थका विस्तार बहुत बढ़ जायगा और इससे कोई लाभ भी नहीं है, इसलिये इनका पृथक् पृथक् प्ररूपण नहीं किया है।
* नामदोष, स्थापनादोष, द्रव्यदोष और भावदोष इसप्रकार दोषका निक्षेप करना चाहिये।
६२२६. इस निक्षेपसूत्रके अर्थको छोड़कर, किस निक्षेपका कौन नय स्वामी है, अर्थात् कौन नय किस निक्षेपको विषय करता है, इसका पहले कथन करते हैं, क्योंकि यह निक्षेप इस नयका विषय है यह जब तक नहीं जान लिया जाता है तब तक निक्षेपके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है।
* नैगम, संग्रह और व्यवहारनय सभी निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं। ६२२७. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि पहले इसका विस्तारसे कथन कर आये हैं।
* ऋजुसूत्रनय स्थापना निक्षेपको छोड़कर शेष तीन निक्षेपोंको स्वीकार करता है।
(२) "दूसंति तेण तम्मि व दूसणमह देसणं व दोसो त्ति। देसो च सो चउद्धा दवे कम्मेयरवियप्पो ॥"-वि० भा० गा० २९६६ । (२) पृ० २५९-२६४ ।
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