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________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पेजदोसविहत्ती ? ६२२८. कुदो हवणा णस्थि ? दव्व-खेत्त-कालभावभेएण भिण्णाणमेयत्ताभावादो, अण्णत्थम्मि अण्णत्थस्स बुद्धीए द्रवणाणुववत्तीदो च । ण च बुद्धिवसेण दव्वाणमेयत्तं होदि तहाणुवलंभादो। दव्वाहियणयमस्सिदूण छिदणामं कथमुजुसुदे पञ्जवष्टिए संभवइ ? ण; अस्थणएसु सदस्स अत्थाणुसारित्ताभावादो। सदववहारे चप्पलए संते लोगववहारो ६२२८. शंका-ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको क्यों नहीं विषय करता है ? समाधान-क्योंकि ऋजुसूत्रनय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे पदार्थोंको भेदरूप ग्रहण करता है, इसलिये उनमें एकत्व नहीं हो सकता है और इसीलिये बुद्धिके द्वारा अन्यपदार्थ में अन्य पदार्थकी स्थापना नहीं की जा सकती है, अतः ऋजुसूत्रनयमें स्थापना निक्षेप सम्भव नहीं है। __ यदि कहा जाय कि भिन्न द्रव्योंमें बुद्धिके द्वारा एकत्व सम्भव है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न द्रव्योंमें बुद्धिके द्वारा भी. एकत्व नहीं पाया जाता है। शंका-नामनिक्षेप द्रव्यार्थिकनयका आश्रय लेकर होता है और ऋजुसूत्र पर्यायार्थिकनय है, इसलिये उसमें नामनिक्षेप कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अर्थनयमें शब्द अपने अर्थका अनुसरण नहीं करता है अर्थात् नामनिक्षेप शब्दके अर्थका अनुसरण नहीं करता है । तथा अर्थनयमें भी यही बात है। अतः अर्थनय ऋजुसूत्र में नामनिक्षेप सम्भव है। विशेषार्थ-शब्दनय लिङ्गादिके भेदसे, समभिरूढनय व्युत्पत्तिके भेदसे और एवंभूतनय क्रियाके भेदसे अर्थको ग्रहण करता है, अतः तीनों शब्दनयों में शब्द अर्थका अनुसरण करता हुआ पाया जाता है। परन्तु अर्थनयों में शब्द इसप्रकार अर्थभेदका अनुसरण नहीं करता है । वहाँ केवल संकेत ग्रहणकी ही मुख्यता रहती है, क्योंकि अर्थनय शब्दगत धर्मोंके भेदसे अर्थमें भेद नहीं करते हैं । 'पुष्यस्तारका' कहनेसे यदि 'पुष्य नक्षत्र एक तारका है' इतना बोध हो जाता है तो अर्थनयोंकी दृष्टिमें पर्याप्त है। पर शब्द नय इस प्रयोगको ही ठीक नहीं मानते हैं, क्योंकि पुलिङ्ग पुष्य शब्दका स्त्रीलिङ्ग तारका शब्दके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। तथा इन शब्दोंमें जब कि लिङ्गभेद पाया जाता है तो इनके अर्थमें भी अन्तर होना चाहिये । यही सबब है कि ऋजुसूत्रनयके अर्थनय होने पर भी उसमें नामनिक्षेप बन जाता है। शंका-यदि अर्थनयोंमें शब्द अर्थका अनुसरण नहीं करते हैं तो शब्द व्यवहारको (१) "चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः"-सिद्धिवि० टी० ५० ५१७ । “चत्वारोऽर्थनया ह्येते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः ॥"-लघी० श्लो० ७२ । अकलङ्क० टि० १० १५२। “अत्थप्पवरं सहोवसज्जणं वत्थुमुज्जुसुत्ता। सहप्पहाणमत्थोवसज्जणं सेसया विति ॥"विशेषा० गा० २७५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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