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________________ २७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती १ २२४. एवं ववहारणयस्स वि वत्तव्वं; अभेदे लोगववहाराणुववत्तीदो। अभेदेण वि लोगे ववहारो दीसइ ति चे; ण;तस्स संगहणयविसयत्तादो। भेदाभेदववहारो कस्स णयस्स विसओ ? णेगमस्स; भेदाभेदे अवलंबिय तदुप्पत्तीदो । तदो तिण्हं णयाणं सव्वदव्वं पेजमिदि जं भणिदं तं सुघडं ति दहव्वं । ___ * भावपेजं ठवणिजं । ६२२४. इसीप्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये । क्योंकि व्यवहारनय भेदप्रधान है, और संयोगी भंग अभेदरूप हैं, अतः यदि अभेदरूप संयोगी भंगोंको माना जायगा तो लोकव्यवहार नहीं बन सकता है। शंका-अभेदरूपसे भी लोकमें व्यवहार देखा जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अभेदरूपसे जो लोकव्यवहार दिखाई देता है वह संग्रहनयका विषय है। शंका-भेदाभेदरूप व्यवहार किस नयका विषय है ? समाधान-भेदाभेदरूप व्यवहार नैगम नयका विषय है, क्योंकि भेदाभेदका आलम्बन लेकर नैगमनयकी प्रवृत्ति होती है। अतः संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र इन तीन नयोंकी अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं यह जो सूत्र में कहा गया है वह अच्छीतरह घटित होता है ऐसा समझना चाहिये । विशेषार्थ-संग्रहनय एक साथ या क्रमसे एक या अनेक पदार्थोंको विवक्षाभेदसे या अनेकरूपसे नहीं ग्रहण कर सकता है। संग्रह नयका विषय अभेद है और सभी पदार्थ पेज्जरूप भावकी विवक्षा होने पर पेज्जरूप हो सकते हैं अतः यह नय सभीको पेज्जरूपसे ही ग्रहण करता है । व्यवहारनयका विषय यद्यपि भेद है इसलिये उसमें प्रिय, हित आदि प्रत्येक भंग बन जाना चाहिये । पर जो प्रिय है वही कालान्तर में या अन्यकी अपेक्षासे हितरूप या सुखरूप भी है और यह सब भेदाभेद व्यवहारनयका विषय नहीं है। अतः यह नय भी सभी पदार्थोंको पेज्जरूपसे ही ग्रहण करता है। ऋजुसूत्र नयका विषय एक है। उसकी दृष्टिसे एक अनेकरूप या अनेक एकरूप होता ही नहीं है अतः ऋजुसूत्रनय भी सभीको पृथक् पृथक् पेज्जरूपसे ही ग्रहण करता है। यहां यह कहा जा सकता है कि वह किसीको हितरूप और किसीको सुखरूप ग्रहण कर ले । यद्यपि ऐसा हो सकता है पर हितादिभाव पेज्जके भेद हैं और यह उसका विषय नहीं होनेसे ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिमें पेज्जके हितादिरूपसे भेद नहीं किये जा सकते हैं। इतने कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि हितादिरूप सात भंग नैगमनयकी अपेक्षासे ही हो सकते हैं संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षासे नहीं। * भावपेजका कथन स्थगित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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