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________________ प्रस्तावना नहीं हो सकता था। किन्तु भूतबलि आचार्यके उपदेशसे क्षपितकमांशका काल पल्यके असंख्यातवें भाग कम कर्मस्थितिमात्र है। - इससे स्पष्ट है कि चूर्णिसूत्र और षटखण्डागममें किन्हीं विषयोंको लेकर मतभेद है। आगे उपयोग अधिकारमें क्रोधादिकषायोंसे उपयुक्त जीवका काल बतलाते हुए जयधवलाकार लिखते हैं___“कोहादिकसायोपनोगजुत्ताणं जहण्णकालो मरणवाघादेहि एकसमयमेत्तोत्ति जीवट्ठाणादिसु परूविदो सो एत्य किण्ण इच्छिज्जदे ? ण; चुण्णिसुत्ताहिप्पाएण तहा संभवाणुवलंभादो।" शङ्का-क्रोधादिकषायोंके उपयोगसे युक्त जीवोंका जघन्यकाल मरण व्याघात आदिके होने पर एकसमयमात्र होता है ऐसा जीवस्थान आदिमें कहा है । वह यहां क्यों नहीं इष्ट है ? समाधान-नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रके अभिप्रायसे वैसा संभव नहीं है। जीवस्थान षटखण्डागमका ही पहला खण्ड है। अतः इस शङ्का-समाधानसे भी स्पष्ट है कि चूर्णिसूत्र और षटखण्डागमका अभिप्राय एकसा नहीं है । और ऐसा क्यों न हो, जब कि जयधवलाकार दोनोंको भिन्न उपदेश बतलाते हैं। __अभी तक हमें कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिल सका है जिसके आधारपर निश्चयपूर्वक चूर्णिसूत्र कहा जा सके कि चूर्णिसूत्रकारके सामने प्रथम सिद्धान्तग्रन्थ षटखण्डागम उपस्थित और था। कसायपाहुडके बन्धक अधिकारमें एक चूर्णिसूत्र इस प्रकार आता हैमहाबन्ध 'सो पुण पडिठिविअणुभागपदेसबंधो बहुसो परूविदो।' ___जयधवलाकारने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-'गाथाके पूर्वार्धसे सचित प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन ग्रन्थान्तरों में विस्तारसे किया है इसलिये उन्हें वहीं देख लेना चाहिये। यहां उनका वर्णन नहीं किया है।" ___ यद्यपि चूर्णिसूत्रके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः चूर्णिसूत्रकार अपने ही लिये ऐसा लिख रहे हैं कि स्वयं उन्होंने ही कहीं इन बन्धोंका विस्तारसे वर्णन किया है। किन्तु जयधवलाकारने इन बन्धेांका विस्तृत वर्णन महाबन्धके अनुसार कर लेनेका निर्देश किया है। इससे यद्यपि यह तो नहीं कहा जा सकता कि चूर्णिसूत्रकारका संकेत भी महाबन्धकी ही ओर था किन्तु यदि ऐसा हो तो असंभव नहीं है, क्योंकि षट्खण्डागमकी तीसरी पुस्तककी प्रस्तावनामें महाबन्धके परिचयमें जो उसके थोड़ेसे सूत्र दिये गये हैं उनके साथ चूर्णिपूत्रोंकी तुलना करनेसे ऐसा लगता है कि चूर्णिसूत्रकारने महाबन्धको देखा था, क्योंकि न केवल दोनों ग्रन्थोंके सूत्रोंकी शैली और रचनामें ही साम्य झलकता है किन्तु शब्दसाम्य भी मालूम होता है। उदाहरणके लिये दोनों के कुछ सूत्र नीचे दिये जाते हैंमहाबन्ध चूर्णिसूत्र तत्थ जो सो पयडिबंधो सो दुविहो, पडिविहत्ती दुविहा मूलपडिविहत्ती च मुलपयडिबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । उत्तरपयडिविहत्ती च । मूलपयडिविहत्तीए तत्थ जो सो मूलपयडिबंधो सो थप्पो, इमाणि अट्ठ अणिओगद्दाराणि । तं जहा। जो सो उत्तरपयडिबंधो सो दुविहो, एगेगुत्तरपडिबंधो अव्वोगाढउत्तरपयडि- तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा, एगेगउत्तर (१) कसायपा० प्रे० का० पृ० ५८५७ । (२) “एवं संते जहण्णदव्वादो उक्कस्सदव्वमसंखेज्जगुणं ति भणिववेयणाचुण्णिसुत्तेहि विरोहो होदि ति ण पच्चवट्ठयं, भिण्णोवएसत्तादो।" प्रे० का० पृ० २८६८ । (३) प्रे० का० पृ० ३४६२ । (४) प्रे० का० पृ० ३९६ । (५) प्रे० का० पृ० ४४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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