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________________ २४ जयधवलासहित कषायप्राभृत पयडिविहत्ती चैव पयडिट्ठाणउत्तरपयडि. विहत्ती चैव । तत्थ एगेग उत्तरपयडिविहत्तीए इमाणि श्रणि गद्दाराणि । तं जहा । यदि महाबन्धके साक्षात् दर्शन हो सके तो इसके सम्बन्ध में और भी प्रकाश डाला जा सकेगा । बंघो चेदि । तत्थ जो सो एगेगुत्तरपयडिबंधो तस्स चउवीस श्रणिश्रोगद्दाराणि नादव्वाणि भवंति । तं जहा कसा पाहुडके साथ जिस श्वेताम्बरीय ग्रन्थ कर्मप्रकृति की तुलना कर आये हैं उसी कर्मप्रकृतिपर एक चूर्ण भी है । किन्तु उसके रचयिताका पता नहीं लग सका है। जैसे कसाय पाहुडके संक्रम अनुयोगद्वार की कुछ गाथाएँ कर्मप्रकृतिके संक्रमकरणसे मिलती हुई हैं। चूर्णिसूत्र और उसी प्रकार उन्हीं गाथाओंपर की चूर्णि में भी परस्परसें समानता है । हम लिख कर्मप्रकृतिकी हैं कि कसायपाहुडके संक्रम अनुयोगद्वार की १३ गाथाएं कर्मप्रकृतिके संक्रमकरण में चा- हैं । इन गाथाओंमेंसे पहली ही गाथापर यतिवृषभने चूर्णिसूत्र रचे हैं । कर्मप्रकृति में भी उस गाथा तथा उसके आगेकी एक गाथापर ही चूर्णि पाई जाती है शेष ग्यारह गाथाओं पर चूर्णि ही नहीं है। उससे आगे फिर उन्हीं गाथाओंसे चूर्णि प्रारम्भ होती है जो कसायपाहुडमें नहीं हैं । यह सादृश्य काकतालीयन्यायसे अचानक ही हो गया है या इसमें भी कुछ ऐतिहासिक तथ्य है यह अभी विचाराधीन ही है । अस्तु, यह समानता तो चूर्णि की रचना करने और न करने की है। दोनों चूर्णियोंमें कहीं कहीं अक्षरशः समानता भी पाई जाती है । जैसे - कसायपाहुडके चारित्रमोहोपशामना नामक अधिकारमें चूर्णि सूत्रकारने उपशामनाका वर्णन इस प्रकार किया है— " उवसामणा दुविहा- करणोवसामणा श्रकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे णामधेयाणि अकरणोवसामणा त्ति वि श्रणुदिण्णोवसामणा त्तिवि । एसा कम्मपवादे । जा सा करणोवसामणा सा दुविहा- देशकरणोवसामणा त्तिवि सव्वकरणोवसामणा त्तिवि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामणा त्तिवि श्रप्पसत्थउवसामणा त्तिवि । एसा कम्मपयडीसु । जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे णामाणि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि पसत्यकरणोवसामणा त्तिवि । " इसकी तुलना कर्मप्रकृतिके उपशमनाकरण की पहली और दूसरी गाथाकी निम्न चूर्णि से करना चाहिये । ( १ ) " करणोवसामणा करणोवसामणा दुविहा उवसामणत्थ । वितिया अकरणोवसामणा तीसे दुवे नामधिज्जाणि - प्रकरणोवसामणा श्रणुदिनोवसामणा य ।सा अकरणोवसामणा ताते प्रणुओोगो वोच्छिन्नो ।” (२) “सा करणोवसामणा दुविहा- सव्वकरणोपसामणा देसकरणोपसामणा च । एक्केक्का दो दो णामा । सव्वोवसामणाते गुणोवसमणा पसत्थोपसमणा य णामा । देसोपसमणादे तासि विवरीया दो नामागुणोपसमणा श्रपसत्थोपसमणा य ।” यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि उपशमनाके ये भेद और उनके नाम कर्मप्रकृतिके उपशमन करणकी पहली और दूसरी गाथामें दिये हैं उन्हींके आधार पर चूर्णिकारने चूर्णि में दिये हैं । किन्तु कसायपाहुडकी गाथाओं में 'उवसामणा कविविधा' लिखकर ही उसकी समाप्ति कर दी गई है। और चूर्णिसूत्रकारने स्वयं ही गाथाके इस अंश का व्याख्यान करनेके लिये उक्त चूर्णिसूत्र रचे हैं । दूसरी बात यह ध्यान में रखने योग्य है कि चूर्णिसूत्रकार करणेोपशामनाका वर्णन कर्मप्रवाद नामक पूर्वमें बतलाते हैं जब कि कर्मप्रकृतिकी चूर्णि में लिखा है कि 'अकरणोपशामनाका अनुयोग विच्छिन्न हो गया और कर्मप्रकृतिके रचयिता भी उससे अनभिज्ञ थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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