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जयधवलासहित कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र की कुछ चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करते हुए जयधवलाकारने उनके पाठान्तरोंकी चर्चा अन्य व्याख्याएँ- की है और लिखा है कि कुछ आचार्य ऐसा पाठ मानते हैं। यथा
'संगह-ववहाराणं दुट्ठो सव्वदव्वेसु पियायदे सव्वदव्वेसु इदि केसि पि आइरियाणं पाठो अत्थि' ।
आगे एक जगह लिखा है
'अण्णे वुण 'तमुवरि हम्मदि' त्ति पाठंतरमवलंबमाणा एवमेत्थ सुत्तत्यसमत्थणं करेंति ।' कसायपा० प्र० पृ० ६४२५।
अर्थात् 'अन्य आचार्य 'तमुवरि हम्मदि' ऐसा पाठान्तर मानकर इसप्रकार इस सूत्रके अर्थका समर्थन करते हैं।
इन उल्लेखोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः उच्चारणावृत्तिके सिवा चूर्णिसूत्रकी कुछ अन्य व्याख्याएँ भी जयधवलाकारके सम्मुख उपस्थित थीं। ये व्याख्याएं कसायपाहुडकी उन व्याख्याओंसे, जिनकी चर्चा पहले कर आये है, पृथक थीं या अपृथक, यह तो तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक उन्हें देखा न जाय, फिर भी इतना तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि चूर्णिसूत्रपर भी अनेक वृत्तियां लिखी गई थीं और इसका कारण यह हो सकता है जैसा कि हम पहले लिख आये हैं कि कसायपाहुडको बिना उसके चूर्णिसूत्रोंके समझना दुरुह था। अतः जो कसायपाहुडको पढ़ना या उसपर कुछ लिखना चाहता था उसे चूर्णिसूत्रोंका आश्रय अवश्य लेना पड़ता था। दूसरे, इन पाठान्तरोंसे यह भी ध्वनित होता है कि जयधवलाकी रचना होनेसे पहले आचार्यपरम्परामें चूर्णिसूत्रोंके पठन-पाठनका बाहुल्य था, क्योंकि ऐसा हुए बिना पाठभेद और उन पर आचार्योंके मतोंकी सृष्टि नहीं हो सकती। जो हो, किन्तु इतना स्पष्ट है कि चूणिसूत्र एक समय बड़े लोकप्रिय रहे हैं।
___ कसायपाहुडका परिचय कराते हुए हम कसायपाहुड और षटखण्डागमके मतभेदकी चर्चा कर आये हैं और यह भी लिख आये हैं कि धवलाकारने दोनोंके मतभेदकी चर्चा करते हुए
कसायपाहुडके उपदेशको भिन्न बतलाया है। जब कसायपाहुडका ही उपदेश भिन्न
है तो उसपर रचे गये चूर्णिसूत्रोंका भी षटखण्डागमसे मतभेद होना संभव है। षट्खण्डागम-जयधवलाकारने इस मतभेदको चचो कई जगहकी है। प्रदेशविभक्तिमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशांका अस्तित्व बतलानेवाले चूर्णिसूत्रका व्याख्यान करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं
"वेयणाए पलिदो० असंखे० भागेणूणियं कम्मठिदि सुहुमेइंदिएसु हिंडाविय तसकाइएसु उप्पाइदो। एत्थ पुण कम्मठिदि संपुण्णं भमाविय तसत्तं णीदो। तदो दोण्हं सुत्ताणं जहाविरोहा तहा वत्तवमिदि। जइवसहाइरियोवएसेण खविदकम्मंसियकालो कम्मठिदिमत्तो 'सुहुमणिगोदेसु कम्मठिदिमच्छिदाउनो' ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो। भूदबलिआइरियोवएसेण पुणखविदकम्मंसियकालोपलिदोवमस्स असंखेज्जभागेणूणं कम्मठिदिमेत्तो।"
अर्थात् 'वेदनाखंडमें पल्यके असंख्यातवें भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें भ्रमण कराकर त्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न कराया है और यहां चूर्णिसूत्रमें सम्पूर्ण कर्मस्थितिप्रमाण भ्रमण कराकर त्रसपर्यायको प्राप्त कराया है। अतः दोनों सूत्रोंमें जिस प्रकार अविरोध हो उस प्रकार कहना चाहिये । यतिवृषभ आचार्यके उपदेशसे क्षपितकमांशका काल कर्मस्थिति प्रमाण है, क्यों कि यदि ऐसा न होता तो 'सुहमणिगोदेसु कम्मठिविमन्छिदाउओ' ऐसा सूत्रका
(१) कसायपा० पृ० ३७३ । (२) कसायपा०प्रे० का० २५२४ ।
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