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प्रस्तावना
सम्मत होनेके कारण पवाइज्जत कहलाता था और दूसरा अपवाइज्जत। उन दोनों उपदेशांका संग्रह चूर्णिसूत्रकारने अपने चूर्णिसूत्रोंमें किया है।
उच्चारणावृत्तिका परिचय कराते हुये हम लिख आये हैं कि चूर्णिसूत्रोंमें जिन विषयोंका
निर्देश मात्र था या जिन्हें छोड़ दिया गया था उनका भी विस्तृत वर्णन इस वृत्तिमें चर्णिसूत्र था। जयधवलाकारने अपनी जयधवला टीकामें इस वृत्तिका खूब उपयोग किया है।
और उनके उल्लेखोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि न केवल चूर्णिसूत्र में निर्दिष्ट अर्थका विस्तृत उच्चारणा वर्णन ही उच्चारणामें किया गया है किन्तु उच्चारणाकी रचना ही चूर्णिसूत्रोंपर हुई
थी और उसमें चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान तक किया गया था। जयधवलाके कुछ उल्लेख निम्न प्रकार हैं
१ "एवं जइवसहाइरिएण सूचिदस्स अत्थस्स उच्चारणाइरियेण परूविदवक्खाणं भणिस्सामो" प्रे० का० पृ० १११४ ।
२ " एवं जइवसहाइरियसुत्तपरूवणं करिय एदेण चेव सुत्तेण देसामासिएण सूचिदत्थाणमुच्चारणाइरियपरूविदवक्खाणं भणिस्सामो।" प्रे० का० पृ० १२९८॥
३ “संपहि एदस्स सत्तस्स उच्चारणाइरियकयवक्खाणं वत्तइस्सामो।" प्रे० का० पृ० १९५९ ।
४ “संपहि एदस्स अत्थसमप्पणासुत्तस्स . . . 'भगवदीए उच्चारणाए पसाएण पज्जवठियपरूवणं भणिस्सामो।" प्रे० का० पृ० २९३६ ।
इन उल्लेखोंसे, खास करके तीसरे उल्लेखसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उच्चारणामें चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान भी था। यह संभव है कि सब सत्रोंका व्याख्यान न हो किन्तु जो सूत्र देशामर्षक हैं उनका उसमें व्याख्यान अवश्य जान पड़ता है। इस प्रकार एक प्रकारसे चूर्णिसूत्रका वृत्तिग्रन्थ होते हुये भी उच्चारणा और चूर्णिसूत्रमें मतभेदोंकी कमी नहीं है । जयधवलाकारने उनके मतभेदोंका यथास्थान उल्लेख किया है । यथा
१ "एसो चुण्णिसुत्तउवएसो, उच्चारणाए पुण वे उवएसा ।" प्रे० का० पृ० १२३४ ।
२ "चुण्णिसुत्ते आणदादिसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अवद्विदविहत्ती पत्थि एत्थ पुण उच्चारणाए अत्थि ।" प्रे० का० पृ० १६२१।।
३ "उच्चारणाए अभिप्पाएण असंखेज्जगुणा, जइवसहगुरूवएसेण संखेज्जगुणा।" प्रे०का०पू०१९१७॥ ४ "णवरि एवंविहसंभवो उच्चारणाकारेण ण विवक्खिओ।" प्रे० का० पृ० ५२७८ ।
एक स्थानपर तो जयधवलाकारने स्पष्ट कह दिया है कि कहीं कहीं चूर्णिसूत्र और उच्चारणामें भेद है। यथा
"संपहि चुण्णिसुत्तेण देसामासिएण सूइदमत्थमुच्चारणाइरिएण पविदं वत्तइस्सामो । अपुणरुत्तत्थो चेव किण्ण वुच्चदे ? ण; कत्यवि चुण्णिसुत्तेण उच्चारणाए भेदो अत्थि त्ति तन्भेवपदुप्पायणदुवारेण पउणरुत्तियाभावादो।"प्रे० का०प० २८३४ ।
यह भेद केवल सैद्धान्तिक विषयोंको ही लेकर नहीं है, किन्तु अनुयागद्वारोंके भी विषयमें है। वेदक अधिकारमें उदीरणास्थानोंके अनुयोगद्वारोंका वर्णन करते हुए चूर्णिसूत्रकारने संन्यास नामका भी एक अनुयोगद्वार रखा है । किन्तु जयधवलाकारका कहना है कि उच्चारणामें सन्यास अनुयोगद्वार नहीं है उसमें केवल सत्रह ही अनुयोगद्वारोंका प्ररूपण किया है। यथा___"उच्चारणाहिप्पाएण पुण सण्णियासो गस्थि तत्थ सत्तारसण्हमेवाणिओगद्दाराणं परूवणादो।" प्र० प्र० ४८४७ ।
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