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________________ ग्रन्थ जयधवलासहित कषायप्राभृत जयधवलाकारने लिखा है कि चूर्णिसूत्रकार अपने द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके अनुसार ही चूर्णिसूत्रोंकी रचना की है किन्तु अद्धापरिमाणनिर्देश नामके उनके पन्द्रहवें अधिकारपर एक भी चूर्णिसूत्र नहीं मिलता। यों तो जयधवलामें इस नामका कोई अधिकार ही नहीं है किन्तु इसका कारण यह है कि जयधवलाकारने गुणधर आचार्यके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंका ही अनुसरण किया है। ऐसी परिस्थितिमें कहीं उस अधिकारको जयधवलाकारने छोड़ तो नहीं दिया ? किन्तु अद्धापरिमाणका निर्देश करने वाली गाथाओं पर चूर्णिसुत्र ही नहीं पाये जाते हैं अतः उक्त संभावना तो बेबुनियाद प्रतीत होती है। किन्तु यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि यदि श्रद्धापरिमाण निर्देशके सम्बन्धमें चूर्णिसूत्रकारने कुछ भी नहीं लिखा तो इस नामका पृथक् अधिकार ही क्यों रखा ? हो सकता है कि चूर्णिसूत्रकार अद्धापरिमाणनिर्देशको पृथक अधिकार मानते हों किन्तु तत्सम्बन्धो गाथाओंको सरल समझकर उनपर चूर्णिसूत्र न रचे हों जैसा कि जयधवलाकारने कहा है। किन्तु ऐसी अवस्थामें उनके अधिकारों में से यही एक ऐसा अधिकार रह जाता है जिसपर उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा। यों तो चूर्णिसूत्र में किसी ऐसे ग्रन्थका निर्देश नहीं मिलता जो आज उपलब्ध हो, . किन्तु आगम ग्रन्थांका उल्लेख अवश्य मिलता है। चारित्रमोहकी उपशामना नामके चूर्णिसूत्रमें । - अधिकारमें चूर्णिसूत्रकारने लिखा है कि अकरणपशामनाका वर्णन कर्मप्रवादमें है अरौ देशकरणपशामनाका वर्णन कर्मप्रकृतिमें है। कर्मप्रवाद आठवें पूर्व का नाम है। और कर्मप्रकृति दूसरे पूर्व के पंचम वस्तु अधिकारके चौथे प्राभृतका नाम है। इसी प्राभृतसे षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई है। इन दो नामांके सिवा उनमें अन्य किसी ग्रन्थका उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। उपयोग अधिकारकी चतुर्थ गाथाका व्याख्यान करके चूर्णिसूत्रकार लिखते हैं 'एक्केण उवएसेण चउत्थीए गाहाए विहासा समत्ता भवदि। पवाइज्जतेण उवएसेण चउत्थीए चूर्णिसूत्रमें विहासा।' दो उपदेश अर्थात् 'एक उपदेशके अनुसार चतुर्थ गाथाका विवरण समाप्त होता है। अब परम्परा- पवाइज्जत उपदेशके अनुसार चतुर्थ गाथाका व्याख्यान करते हैं ।' ___इसीप्रकार आगे भी कई विषयों पर चूर्णिसूत्रकारने पवाइज्जत और अपवा इज्जंत उपदेशांका उल्लेख किया है । यह पवाइज्जत उपदेश क्या है ? यह बतलाते हुए जयधवलाकारने लिखा है—'जो उपदेश सब आचार्योंको सम्मत होता है और चिरकालसे अविछिन्न सम्प्रदाय क्रमसे आता हुआ शिष्य परम्पराके द्वारा प्रवाहित होता है-कहा जाता है या लाया जाता है उसे पवाइज्जंत कहते हैं। अथवा यहां भगवान् आर्यमंञ्जका उपदेश अपवाइज्जत है और नागहस्तिक्षपणकका उपदेश पवाइज्जत है।' ___इससे स्पष्ट है कि चूर्णिसूत्रकारको विविध विषयांपर दो प्रकारके उपदेश प्राप्त थे। उनमेंसे एक उपदेश आचार्य परम्परासे अविच्छिन्न रूपसे चला आया होनेके कारण तथा सर्वाचार्य (१) “एसा कम्मपवादे ।" कसायपा.प्रे. का. पृ. ६५६२। (२) “एसा कम्मपयडीसु ।” कसायपा. प्रे. का. पृ. ६५६७ । (३) “सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमन्वोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो त्ति भण्णदे । अथवा अज्जमखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतवो त्ति घेतव्वो।" कसायपा०प्रे०पृ०५९२०-२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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