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________________ गा० १३-१४] पेज्जे णिक्वेवपरूवणा विरोधः; अव्यवस्थापत्तेः । न चानेकान्ते एकान्तवाद इव सङ्केतग्रहणमनुपपन्नम् ; सर्वव्यवहाराणा [मनेकान्त एव सुघटत्वात् । ततः] वाच्यवाचकभावो घटत इति स्थितम् । वम्हा सद्दणयस्स णामभावणिक्खेवा बे वि जुजंति त्ति सिद्धं । २१७. संपहि णिक्खेवत्थो उच्चदे । तं जहा, तत्थ णामपेज पेजसहो । कथमेकम्हि पेजसद्दे वाचियवाचयभावो जुञ्जदे ? ण; एक्कम्हि वि पईवे पयासमाणपंया [सियभावदसणादो । ] ण च सो असिद्धो; उवलब्भमाणत्तादो। सोयमिदि अण्णम्हि पेजभावहवणा हवणापेजं णाम । दव्वपेजं दुविहं आगम-णोआगमदव्वपेजभेएण । तत्थ आगमदो दव्वपेजं पेजपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो। कथं जीवदव्वस्स सुदोवजोगवजियस्स आगमसण्णा ? ण; आगमजणिदसंसकारसंबंधेण आगमववएसुववत्तीदो। णहसंहोती है। और जो वस्तु उपलब्ध होती है उसमें विरोधकी कल्पना करना ठीक भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। तथा जिस प्रकार एकान्तवादमें संकेतका ग्रहण नहीं बनता है उसीप्रकार अनेकान्तवादमें भी संकेतका ग्रहण नहीं बन सकता, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समस्त व्यवहार अनेकान्तवादमें ही सुघटित होते हैं। अतः वाच्यवाचकभाव बनता है यह सिद्ध होता है। अतः शब्द नयके नाम और भाव ये दोनों ही निक्षेप बनते हैं यह सिद्ध होता है। ६२१७. अब चारों निक्षेपोंका अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है-'पेज' यह शब्द नामपेज है। शंका-एक पेज शब्दमें वाच्यवाचकभाव कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकार एक प्रदीपमें भी प्रकाश्यप्रकाशकभाव पाया जाता है अर्थात् जैसे एक ही प्रदीप प्रकाश्य भी होता है और प्रकाशक भी होता है वैसे ही एक पेज्ज शब्द वाच्य भी होता है और बाचक भी होता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि होती है । __'वह यह है' इसप्रकार किसी दूसरे पदार्थमें पेज धर्मकी स्थापना करना स्थापमापेज्ज है। आगमद्रव्यपेज और नोआगमद्रव्यपेजके भेदसे द्रव्यपेज दो प्रकारका है। जो जीव पेजविषयक शास्त्रको जानता हुआ भी उसमें उपयोगसे रहित है वह आगमद्रव्यपेज है। . शंका-जो जीव पेज्जविषयक श्रुतज्ञानके उपयोगसे रहित है उसकी आगमसंज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उसके आगमजनित संस्कार पाया जाता है, इसलिये उसके तमन्तरङ्गवर्णात्मकं पदं वाक्यं वा अर्थप्रतिपादकमिति निश्चेतव्यम् ।"-ध० आ० ५० ५५४। (१)-णा (२०१२) वाच्य-ता०, स०।-णां वाच्मवाचकभावक्रमेण बाच्य-अ०भा०। (२)-पया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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