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________________ trader हिदे कसा पाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ स्यैकदेशोऽभिव्यज्यते; स्फोटाप्रतिपचिप्रसङ्गात् । नान्त्यवर्णस्तद्व्यञ्जकः; तस्याप्येकवर्णतः अविशेषात् । न स्फोटावयवप्रतिपत्तिरपि तदप्रतिपत्तौ तदवयवाप्रतिपत्तेः । न स्फोटस्मृतिरपि; अप्रतिपन्ने स्मरणानुपपत्तेः । ततः सकलप्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वान्नास्ति स्फोट इति सिद्धम् । ततो न वाच्यवाचकभावो घटत इति । न; बहिरङ्गशब्दात्मकनिमित्तं च ( तेभ्यः ) क्रमेणोत्पन्नवर्णप्रत्ययेभ्यः अक्रमस्थितिभ्यः समुत्पन्नपदवाक्याभ्यामर्थविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् । न च वर्णप्रत्ययानां क्रमोत्पन्नानां पदवाक्यप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तानामक्रमेण स्थितिर्विरुद्धा; उपलभ्यमानत्वात् । न चोपलभ्यमाने २६८ व्यक्ति मान ली जाय तो केवल एक वर्णसे अर्थके ज्ञानका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि एक वर्णसे स्फोटका एकदेश प्रकट होता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समस्त स्फोटके ज्ञान न होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । अन्त्य वर्ण स्फोटको अभिव्यक्त करता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्त्य वर्ण भी एक वर्णसे कोई विशेषता नहीं रखता है, अर्थात् वह भी तो एक वर्ण ही है इसलिये एक वर्णसे स्फोटकी अभिव्यक्ति मानने में जो दोष दे आये हैं वे सब दोष अन्त्य वर्णसे स्फोटकी अभिव्यक्ति मानने में भी प्राप्त होते हैं । यदि कहा जाय कि एक वर्णसे स्फोटके एक देशकी अभिव्यक्ति होकर उसके एक अवयवकी प्रतिपत्ति होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जब स्फोटका ही ज्ञान नहीं होता है तो उसके एक अवयवका ज्ञान कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है | स्फोटका स्मरण होता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिसका पहले ज्ञान नहीं हुआ है उसका स्मरण नहीं हो सकता है । अत: प्रत्यक्ष आदि समस्त प्रमाणों का विषय नहीं होनेसे स्फोट नामका कोई पदार्थ नहीं है यह सिद्ध होता है । इसप्रकार उक्त रूपसे जब वर्ण, पद वाक्य और स्फोटसे अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं होती है तो वाच्यवाचकभाव नहीं बन सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि बाह्य शब्दात्मक निमित्तोंसे क्रमसे जो वर्णज्ञान होते हैं और जो अक्रमसे स्थित रहते हैं उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्योंसे अर्थविषयक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । अर्थात् घ ट आदि वर्णोंके उच्चारणसे उन वर्णोंका ज्ञान होता तो क्रमसे है किन्तु वह अक्रमसे स्थित रहता है और उससे श्रोता के मानस में जो पद और वाक्योंका बोध होता है उससे अर्थका ज्ञान होता है । यदि कहा जाय कि पद और वाक्योंके ज्ञानकी उत्पत्ति में कारणभूण वर्णविषयक ज्ञान क्रमसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये उन वर्णविषयक ज्ञानोंकी अक्रमसे स्थिति माननेमें विरोध आता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वर्णविषयक ज्ञानोंकी युगपत् स्थिति उपलब्ध (१) “आद्यो वर्णध्वनिः शब्दात्मा सकलस्य वा व्यञ्जकः स्यात्, एकदेशस्य वा ? " - राजवा० ५|२४| माकुम० पृ० ७५३ टि० १४ । ( २ ) - शब्दार्थक (त्रु० ३) क्रमेणो- स० । तुलना - "ततो बहिरंगवर्णजनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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