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________________ २६७ ~ ~ गा० १३-१४] वाचियवाचयभाववियारो मपि; तत्प्रतिबद्धलिङ्गानुपलम्भात् । नार्थापत्तेः स्फोटास्तित्वसिद्धिः; केनचिदर्थप्रतिपत्तेनिमित्तेनं विपरीतक्रमत्वसिद्धेः स्फोटादेवार्थप्रतिपत्तिरित्यसिद्धेः । नागमोऽपि; तस्य प्रत्यागमसद्धावात् । वर्णश्रवणानन्तरं स्फोटस्समुपलभ्यत इति चेतः न वचनमात्रत्वात् । न चानुभवः परोपदेशमपेक्षते; अतिप्रसङ्गात् । न चानवगतोऽपि ज्ञापको भवति अन्यत्र तथाऽदृष्टेः । किञ्च, न पर्दवाक्याभ्यां स्फोटोऽभिव्यज्यते; तयोरसत्त्वात् । न चैकेन वर्णेन; तथानुपलम्भात्, वर्णमात्रार्थप्रतिपत्तिप्रसङ्गाच्च । नैकवर्णेन स्फोटसर्वगत और नित्यादिस्वरूप स्फोटको अनुमान भी ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि इसप्रकारके स्फोटसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई हेतु नहीं पाया जाता है। अर्थापत्तिसे स्फोटके अस्तित्वकी सिद्धि हो जायगी, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्फोटसे जिस क्रमसे अर्थकी प्रतिपत्ति होती है अर्थकी प्रतिपत्तिके किसी अन्य निमित्तसे उससे भिन्न क्रमसे जब अर्थकी प्रतिपत्ति सिद्ध है तो केवल स्फोटसे ही अर्थकी प्रतिपत्ति होती है यह बात अर्थापत्तिसे सिद्ध नहीं होती है । आगम भी नित्यादिरूप स्फोटको ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि जिस आगमसे नित्यादिरूप स्फोटकी सिद्धि की जाती है उससे विपरीत आगम भी पाया जाता है। घ, ट इत्यादि वर्गों के सुननेके अनन्तर स्फोटका ग्रहण होता ही है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहना वचनमात्र है। यदि स्फोटका अनुभव होता तो उसकी सिद्धिके लिये परके उपदेशकी अपेक्षा ही नहीं होती, क्योंकि प्रत्यक्षसिद्ध वस्तुमें परोपदेशकी अपेक्षा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् अनुभवसे ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि वर्षों के सुननेके बाद स्फोटकी प्रतीति होती है। अतः जब अनुभवसे यह बात प्रमाणित नहीं है तो केवल दूसरेके कहनेसे इसे कैसे माना जा सकता है। यदि कहा जाय कि स्फोट यद्यपि जाना नहीं जाता है तो भी वह अर्थका ज्ञापक है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता है। यदि कहा जाय कि स्फोटकी सत्ता सर्वत्र पाई जाती है पर उसकी अभिव्यक्ति पद और वाक्योंके द्वारा होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्फोटवादियोंके मतमें पद और वाक्य पाये नहीं जाते हैं। एक वर्णसे स्फोटकी अभिव्यक्ति होती है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक वर्णसे स्फोटकी अभिव्यक्ति होती हुई देखी नहीं जाती है । और यदि एक वर्णसे स्फोटकी अभि (२)-न विपरीतक्रमत्वसिद्धेः शब्दानिवार्थप्रति-अ०, आ० । -न भवि (३०३) तत्सिद्धिः स्फोटादेवार्थप्रति-स०। (२) तुलना-“यस्यानवयवः स्फोटः व्यज्यते वर्णबुद्धिभिः । सोऽपि पर्यनुयोगेन नैवैतेन विमुच्यते ॥ तत्रापि प्रतिवर्ण पदस्फोटो न गम्यते । न चावयवशो व्यक्तिस्तवभावान्न चात्र धीः॥ प्रत्येकञ्चाप्यशक्तानां समुदायेऽप्यशक्तता।"-मी० श्लो० स्फो० श्लो० ९१-९३ । “न समस्तैरभिव्यज्यते समु. दायानभ्युपगमात् । न व्यस्तैः; एकेनैवाभिव्यक्ती शेषोच्चारणवैयर्थ्यप्रसङ्गात् ।"-प्रश० व्यो० पृ० ५९५। "पदस्फोटोऽभिव्यज्यमानः प्रत्येक वर्णेनाभिव्यज्यते वर्णसमूहेन वा।"-युक्त्यनु० टी० पृ० ९६ । तत्त्वार्थश्लो. पु. ४२६ । प्रमेयक० पृ. ४५४ । न्यायकुम० पृ० ७५२ । सन्मति० टी० पृ०४३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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