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________________ गा० १३-१४ ] णिक्खेवेसु णयजोजण २६३ त्ति हवणाए संभवो किण्ण जायदे १ होदु णाम सरिसत्तं; तेण पुण [णेयत्तं]; दव्व-खेत्तकाल-भावेहि भिण्णाणमेयत्तविरोहादो। णं च बुद्धीए भिण्णत्थाणमेयत्तं सकिञ्जदे [काउं तहा ] अणुवलंभादो। ण च एयत्तेण विणा ठवणा संभवदि, विरोहादो।। 8 २१३. ण च उजुसुदो (सुदे) [पज्जवहिए ] णए दव्वणिक्खेवो ण संभवई [वंजणपज्जायसवेण ] अवटियस्स वत्थुस्स अणेगेसु अत्थ-विजणपज्जाएसु संचरंतस्स दव्वभावुवलंभादो । वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावहाणं होदि त्ति णासं समाधान-नहीं, क्योंकि इसप्रकार व्यंजन पर्यायरूप घटादि पदार्थों में सदृशता भले ही रही आओ पर इससे उनमें एकत्व नहीं स्थापित किया जा सकता है, क्योंकि जो पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा भिन्न हैं उनमें एकत्व माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि भिन्न पदार्थोंको बुद्धिसे एक मान लेंगे, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है। और एकत्वके बिना स्थापनाकी संभावना नहीं है, क्योंकि एकत्वके विना स्थापनाके मानने में विरोध आता है। विशेषार्थ-ऋजुसूत्रनयका विषय पर्याय है, द्रव्य नहीं। तथा स्थापनानिक्षेप दोमें विद्यमान सादृश्य सामान्यके बिना हो नहीं सकता है, अत: ऋजुसूत्रनय स्थापनानिक्षेपको नहीं ग्रहण करता है । दोमें बुद्धिके द्वारा एकत्वकी कल्पना करके ऋजुसूत्रनयमें तन्मूलक स्थापना मानना भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सादृश्यसामान्यके बिना दोमें एकता नहीं मानी जा सकती है। इसलिये स्थापनानिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय नहीं है। ६२१३. यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक नय है, इसलिये उसमें द्रव्यनिक्षेप संभव नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ अर्पित व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा अवस्थित है और अनेक अर्थपर्याय तथा अवान्तर व्यंजनपर्यायोंमें संचार करता है उसमें द्रव्यपनेकी उपलब्धि होती ही है, अतः ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यनिक्षेप बन जाता है। यदि कहा जाय कि व्यंजनपर्यायको विषय करनेवाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है, इसलिये वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है, क्योंकि उसका काल वर्तमान मात्र है । सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विवक्षित व्यंजन पर्यायके (१) पुण · ·दव्व ता०, म०। पुण तिविहं विण्णेयं दव्व-अ० आ० । (२) तुलना-"ण च कप्पणाए अण्णदव्वस्स अण्णत्थेण दव्वेण सह एयत्तं होदि; तहाणुवलंभादो"-ध० आ० प० ८६३ । (३)-दे कालस्स अणु-स०, अ०, आ०। -दे. 'अणु-ता० । (४) उजुसुदो (त्रु० ५) णए दव्व-ता०, स० । उजुसुदो भावो बहुए दुण्णए दव्व-अ०, आ० । “कधमुज्जुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवो त्ति ? ण; तत्थ वट्टमाणसमयाणंतगुणण्णिदएगदववसंभवादो।"-ध० सं० पृ० १६ । “कधमुज्जुसुदे पज्जवट्ठिए दव्वणिक्खेवसंभवो ? ण; असुद्धपज्जवट्ठिए वंजणपज्जायपरतंते सुहुमपज्जायभेदेहि णाणत्तमुवगए तदविरोहादो"-ध० आ० प० ८६३ । (५)-इ (त्रु० ९) अव-ता० स० । (६) ण संकणि-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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