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________________ २६२ · जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ * उजुसुदो ठवणवजे ॥ २१२. उज्जुसुदो णओ टवणं मोत्तूण सव्वे णिक्खेवे इच्छदि । उजुसुदविसए किमिदि सुवर्णा ण चत्थि (णत्थि) १ तत्थ सारिच्छलक्खणसामण्णाभावादो। ण च दोण्हं लक्ख(क्ख-) ण संताणम्मि वट्टमाणाणं सारिच्छविरहिएण एगत्तं संभवइ; विरोहादो।असुद्धेसु उजुसुदेसु बहुएसु घडादिअत्थेसु एंगसण्णिमिच्छतेसु सारिच्छलक्खणसामण्णमत्थि अपेक्षा भावनिक्षेप भी उक्त तीनों द्रव्यार्थिक नयोंके विषयरूपसे स्वीकार कर लिया जाता है। अथवा, प्रत्येक नय अपने विषयको ग्रहण करते समय दूसरे नयोंके विषयोंकी अपेक्षा रखता है तभी वह समीचीन कहा जाता है, क्योंकि दूसरे नयोंके विषयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपने विषयको ग्रहण करनेवाला नय मिथ्या कहा है, अतः द्रव्यार्थिक नयोंका विषय मुख्यरूपसे द्रव्य होते हुए भी गौणरूपसे पर्याय भी लिया गया है । इसप्रकार द्रव्यार्थिक नयोंके विषय रूपसे भावका भी ग्रहण हो जाता है, इसलिये नैगमादि द्रव्यार्थिक नयोंके विषयरूपसे भावनिक्षेप को स्वीकार कर लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है । सन्मतिसूत्रकारने 'णामं ठवणा दवियं' इत्यादि गाथा द्वारा भावको जो पर्यायार्थिक नयका विषय कहा है वहां उनकी विवक्षा ऋजुसूत्रनयकी प्रधानतासे रही है, इसलिये उस कथनके साथ भी उक्त कथनका कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि स्याद्वादमें विवक्षाभेद विरोधका कारण नहीं माना गया है। इसप्रकार नैगमादि तीनों द्रव्यार्थिकनयोंमें नामादि चारों निक्षेप बन जाते हैं यह सिद्ध हो जाता है। * ऋजुसूत्र स्थापनाके सिवाय सभी निक्षेपोंको स्वीकार करता है। ३२१२. ऋजुसूत्र नय स्थापना निक्षेपको छोड़कर शेष सभी निक्षेपोंको करता है । शंका-ऋजुसूत्रके विषयमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान-क्योंकि ऋजुसूत्र नयके विषयमें सादृश्य सामान्य नहीं पाया जाता है, इसलिये वहां स्थापना निक्षेप नहीं बनता है। यदि कहा जाय कि क्षणसन्तानमें विद्यमान दो क्षणोंमें सादृश्यके बिना भी स्थापनाका प्रयोजक एकत्व बन जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सादृश्यके विना एकत्वके माननेमें विरोध आता है। शंका-घट इत्याकारक एक संज्ञाके विषयभूत व्यञ्जनपर्यायरूप अनेक घटादि पदार्थों में सादृश्यसामान्य पाया जाता है, इसलिये अशुद्ध ऋजुसूत्र नयोंमें स्थापना निक्षेप क्यों संभव नहीं है ? (१) "उज्जुसुदे ट्ठवणणिक्खेवं वज्जिऊण सव्वणिक्खेवा हवंति; तत्थ सारिच्छसामण्णाभावादो।" -ध० सं० पृ० १६ । ध० आ० प० ८६३ । (२)-णा च णत्थि अ०, आ०। (३)-हं ति... 'णसस०। (४) एगसण्णि मिच्छदंतेसु अ०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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