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________________ गो० १३-१४ ] णिक्खेवेसु णयजोजणा . २६१ संभवादो। अथवा, सव्वदव्वष्टियणएसु तिण्णि काला संभवंति; सुणएसु तदविरोहोदो। ण च दुण्णएहि ववहारो; तेसिं विसयाभावादो। ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो; उज्जुसुदणयविसयभावणिक्खेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो । तम्हा णेगम-संगह-ववहारणएसु सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति सिद्धं । लिया जाता है तब अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयोंमें भी भावनिक्षेप बन जाता है, क्योंकि व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा भावमें भी तीनों काल संभव हैं। अथवा सभी द्रव्यार्थिकनयोंमें तीनों काल संभव हैं इसलिये सभी द्रव्यार्थिकनयोंमें भावनिक्षेप बन जाता है, क्योंकि समीचीन नयोंमें तीनों कालोंके मानने में कोई विरोध नहीं है । तथा व्यवहार मिथ्यानयोंके द्वारा तो किया नहीं जाता है, क्योंकि मिथ्यानयोंका कोई विषय नहीं है। यदि कहा जाय कि भावनिक्षेपका स्वामी द्रव्यार्थिकनयोंको भी मान लेने पर सन्मतितर्कनामक ग्रन्थके 'णामं ठवणा दवियं' इत्यादि गाथाके द्वारा भावनिक्षेपको पर्यायार्थिकनयका विषय कहनेवाले सूत्रके साथ विरोध प्राप्त होता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो भावनिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय है उसकी अपेक्षासे सन्मतिके उक्त सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। अतएव नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीनों द्रव्यार्थिकनयोंमें सभी निक्षेप संभव हैं यह सिद्ध हो जाता है। विशेषार्थ-यहां यह शङ्का की गई है कि यद्यपि नाम निक्षेप करते समय गुण या पर्यायकी मुख्यता नहीं रहती है, इसलिये वहां दोनों प्रकार के सामान्योंकी मुख्यता संभव है । स्थापना किसी एक पदार्थकी उससे भिन्न किसी दूसरे पदार्थमें की जाती है, इसलिये वहां सादृश्य सामान्यकी ही मुख्यता पाई जाती है, तद्भावसामान्यकी नहीं। द्रव्यनिक्षेपमें वस्तुकी भूत और भावी पर्यायें तथा सहकारी कारण अपेक्षित होते हैं इसलिये उसमें दोनों सामान्योंकी मुख्यता संभव है। पर भावनिक्षेप वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा ही होता है अतः उसमें केवल पर्यायकी मुख्यता पाई जानेके कारण उसके स्वामी द्रव्यार्थिक नय नहीं हो सकते हैं। अर्थात् द्रव्यार्थिकनय भाव निक्षेपको विषय नहीं कर सकता है। उसको विषय करनेवाला तो केवल पर्यायार्थिक नय ही हो सकता है । ऐसी अवस्थामें यहां नैगम, संग्रह और व्यवहार नय भावनिक्षेपके भी स्वामी हैं ऐसा क्यों कहा ? इस शंकाका समाधान वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे किया है। वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्य भाव कहलाता है इसलिये यद्यपि तीनों द्रव्यार्थिक नय भाव निक्षेपके स्वामी नहीं हो सकते हैं यह ठीक है। पर जब भावका अर्थ त्रिकालवर्ती व्यंजन पर्याय लिया जाता है तब व्यंजन पर्यायकी (१)-ति तहेव तदविरोहादो एवं ण अ०, आ० । -ति त्ति तदविराहादो स०। (२)-हा सुणता० । (३)-रो (त्रु० ३) तेसिं ता० । -रो णिणेयं तेसिं अ०, आ० । -रो त्ति तेसिं स०। (४) "णामं ठवणा दवियं . ."-सन्मति० १६। “ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो; सुद्धज्जुसुदणयविसयीकयपज्जाएणुवलक्खियदव्वस्स सुत्ते भावत्तभुवगमादो।"-ध० आ० १०५५३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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