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________________ २३५ गा० १३-१४ ] - णयपरूवणं ___११६७. तत्र व्यञ्जननयस्त्रिविधः-शब्दः समभिरूढ एवम्भूतश्चेति । शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययतीति शंब्दः। लिङ्ग-सख्या-काल-कारक-पुरुषोपग्रहव्यभिचारनिवृत्तिपरोऽयं नयः । लिङ्गव्यभिचारः-स्त्रीलिङ्गे पुल्लिङ्गाभिधानम्-तारका स्वातिरिति । पुल्लिङ्गे ख्यभिधानम्-अवगमो विद्येति । स्त्रीलिङ्गे नपुंसकाभिधानम्-वीणा आतोद्यमिति । नपुंसके स्त्र्यभिधानम्-आयुधं शक्तिरित । पुल्लिङ्गे नपुंसकाभिधानम्-पटो वस्त्रमिति । लाते हुए यदि चालू व्यवहार उसका विषय नहीं पड़ता है तो इससे व्यवहारके उच्छेदके भयका कोई कारण नहीं है, क्योंकि जहां प्रत्येक नयका कथन किया जाता है वहां उस नयके स्वरूप और विषयका प्रतिपादन करना ही उसका मूल प्रयोजन रहता है। इसी अपेक्षासे यहां ऋजुसूत्र नयका विषय दिखलाया गया है, व्यवहारकी प्रधानतासे नहीं । व्यवहार तो नयसमूहका कार्य है, वह एक नयसे हो भी नहीं सकता है। ____११७. व्यंजननय तीन प्रकारका है-शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । 'शपति' अर्थात् जो पदार्थको बुलाता है अर्थात् उसे कहता है या उसका निश्चय कराता है उसे शब्दनय कहते हैं । यह शब्दनय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के व्यभिचारको दूर करता है। पुलिंगके स्थानमें स्त्रीलिंगका और स्त्रीलिङ्गके स्थानमें पुल्लिङ्गका कथन करना आदि लिङ्गव्यभिचार है । जैसे- 'तारका स्वातिः' स्वाति नक्षत्र तारका है। यहां पर तारका शब्द स्त्री लिङ्ग और स्वाति शब्द पुल्लिङ्ग है, अतः स्त्रीलिङ्ग शब्दके स्थान पर पुल्लिङ्ग शब्दका कथन करनेसे लिङ्गव्यभिचार है, अर्थात् तारका शब्द स्त्रीलिङ्ग है उसके साथमें पुलिङ्ग स्वाति शब्दका प्रयोग किया गया है जो कि नहीं किया जाना चाहिये था । अतः यह लिंगव्यभिचार है। इसीतरह आगे भी समझना चाहिये । ‘अवगमो विद्या' ज्ञान विद्या है । यहाँ पर अवगम शब्द पुलिङ्ग और विद्या शब्द स्त्रीलिङ्ग है, अतएव पुलिङ्गके स्थानमें स्त्रीलिङ्ग शब्दका कथन करनेसे लिङ्गव्यभिचार है। 'वीणा आतोद्यम्' वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है । यहाँ पर वीणा शब्द स्त्रीलिङ्ग और आतोद्य शब्द नपुंसकलिङ्ग है, अतएव स्त्रीलिङ्ग शब्दके स्थानमें नपुंसकलिङ्ग शब्दका कथन करनेसे लिङ्गव्यभिचार है । 'आयुधं शक्तिः' शक्ति एक आयुध है । यहाँ पर आयुध शब्द नपुंसकलिङ्ग और शक्तिशब्द स्त्रीलिङ्ग है, (१) लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दः ।"-सर्वार्थसि० ११३३ । "शपति अर्थमाहवयति प्रत्याययतीति शब्द:.."स च लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवत्तिपरः ।"-राजवा० ११३३ । "कालकारकलिङ्गानां भेदाच्छब्दोऽर्थभेदकृत।"- लघी० का० ४४ । प्रमाणसं० का० ८२। त० श्लो. पृ० २७२। नयवि० श्लो०८४ “शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणः शब्दनयः।"-ध० सं० १० ८७ । नयचक्र० गा० ४० । "इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सहो"-अनु० सू० १४५ । आ० नि० गा० ७५७ । विशेषा० गा० २७१८ । “यथार्थाभिधानं शब्द:: 'आह च-विद्याद्यथार्थशब्दं विशेषितपदं तु शब्दनयम्"त० भा० ११३५ । प्रमाणनय० ७३३२, ३३ । स्या० म० पृ० ३१३ । जनतर्कभा० पृ० २२ । (२) "तत्र लिङ्गव्यभिचारः पुष्यस्तारका नक्षत्रमिति...."-सर्वार्थसि०, राजवा०, त० श्लो० ११३३ । ध० आ० प० ५४३ । ध० सं० १०८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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