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________________ २३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? नहीं आ रहा है ऐसा यह नय स्वीकार करता है । इसीप्रकार इस नयकी दृष्टिमें विशेषणविशेष्यभाव, सामानाधिकरण्य, वाच्यवाचकभाव आदि भी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि ये सब दो पदार्थोंसे संबन्ध रखते हैं पर यह नय दो पदार्थोंके सम्बन्धको स्वीकार ही नहीं करता है। तथा इस नयकी दृष्टिमें उत्पाद और विनाश ये दोनों ही निर्हेतुक हैं, क्योंकि उत्पाद और विनाश जब वस्तुके स्वभाव हैं तो वे निर्हेतुक होने ही चाहिये । तथा इस नयका विषय संयोगसम्बन्ध और समवायसम्बन्ध भी नहीं है, क्योंकि संयोगसंबन्ध दोमें और समवायसंबन्ध कथंचित् दोमें होता है । पर जब इस नयका विषय दो नहीं है तो दोमें रहनेवाला सम्बन्ध इसका विषय कैसे हो सकता है ? अतएव इसकी दृष्टिमें न तो द्रव्यगत भेद ही प्रतिभासित होते हैं और न अनेक द्रव्योंका संयोग या द्रव्य और पर्यायका समवाय ही प्रतिभासित होता है । तथा यह नय प्रत्येक वस्तुको निरंशरूपसे ही स्वीकार करता है। ऊपर इस नयका विषय जो शुद्ध परमाणु कहा है उसका अर्थ परमाणु द्रव्य नहीं लेना चाहिये किन्तु निरंश और सन्तानरूप धर्मसे रहित शुद्ध एक पर्यायमात्र लेनी चाहिये। इसप्रकार जब इसका विषय शुद्ध निरंश पर्यायमात्र है, तो दोमें रहनेवाला सदृशपरिणाम इसका विषय किसी भी हालतमें नहीं हो सकता है । इस नयकी दृष्टिसे जो स्थापना निक्षेपका निषेध किया जाता है उसका भी यही कारण है । वास्तवमें एकसमयवर्ती वर्तमानकालीन पर्यायको छोड़कर इस नयकी और किसी भी विषयमें प्रवृत्ति नहीं होती है। परन्तु सदृशपरिणामरूप तिर्यक्सामान्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अभिन्न पदार्थों में हो ही नहीं सकता । वह तो क्षेत्रादिके भेदसे रहनेवाले दो पदार्थों में ही होता है जो कि इस नयके विषय नहीं हैं । अतः कोई किसीके समान है यह भी इस नयकी दृष्टिमें नहीं बनता है। तथा इस नयके विषय संयोगादिक नहीं होनेसे इस नयकी दृष्टि में स्कन्ध द्रव्य भी नहीं बन सकता है । इस नयका विषय न तो तिर्यक्सामान्य ही है और न ऊर्ध्वतासामान्य ही है, क्योंकि इस नयका विषय न तो दो पदार्थ ही है और न अनेकक्षणवर्ती एक द्रव्य ही। यद्यपि यह नय विशेषको विषय करता है पर विशेषमें भी पर्यायविशेष ही इसका विषय है व्यतिरेकविशेष नहीं, क्योंकि व्यतिरेकविशेष दोकी अपेक्षा करता है परन्तु जब यह नय दोको ग्रहण ही नहीं करता है तो व्यसापेक्ष धर्मको कैसे स्वीकार कर सकता है ? तथा पर्यायविशेष सजातीय और विजातीय आदि सभी उपाधियोंसे रहित है, निरंश है। अत एव इस नयकी अपेक्षा स्तंभादि स्कन्धरूप प्रत्यय भ्रान्त समझना चाहिये । इस सब कथनका सार यह है कि यह नय शुद्ध वर्तमानकालीन एकक्षणवर्ती पर्यायमात्रको विषय करता है अन्य सब इस नयके अविषय हैं। किन्तु इससे सकल व्यवहारका उच्छेद प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि कोई भी नय किसी एक दृष्टिकोणसे ही वस्तुको विषय करता है । और व्यवहार अनेक दृष्टिकोणोंके समन्वयका परिणाम है । अतः किसी भी एक नयका विषय दिख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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