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________________ गा० १३-१४] णयपरूवणं २३१ अव्यवस्थापत्तेः । ने सम्बन्धः (म्बद्धः); तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च । न समानो गृह्यते तस्यासत्त्वात्, मनस्कारेण व्यभिचाराच्च।। ६१६६. नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति । तद्यथा-न सम्बद्धार्थः शब्दवाच्यः; तस्यातीतत्वात् । नासम्बद्धः; अव्यवस्थापत्तेः। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते शब्दोत्पत्तेः प्रागपि अर्थसत्त्वोपलम्भात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षणः प्रतिबन्धः; करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोदोषकी आपत्ति प्राप्त होती है। अर्थात् असम्बद्ध अर्थका ग्रहण मानने पर किसी भी ज्ञानसे किसी भी पदार्थका ग्रहण प्राप्त हो जायगा। तथा ज्ञानसे सम्बद्ध अर्थका भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि वह ग्रहणकालमें रहता नहीं है। यदि कहा जाय कि अतीत होने पर भी उसका ज्ञानके साथ कार्यकारणभाव सम्बन्ध पाया जाता है अतः उसका ग्रहण हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षुइन्द्रियसे व्यभिचार दोष आता है। अर्थात् पदार्थकी तरह चक्षु इन्द्रियसे भी ज्ञानका कार्यकारणसम्बन्ध पाया जाता है फिर भी ज्ञान चक्षुको नहीं जानता है। उसीप्रकार समान अर्थका भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान अर्थ पाया नहीं जाता है और दूसरे समान अर्थका ग्रहण मानने पर मनस्कारसे व्यभिचार भी आता है। अर्थात् मनस्कार यानी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञानके समान है किन्तु उत्तरज्ञानके द्वारा गृहीत नहीं होता है। १९६. तथा इस नयकी दृष्टिमें वाच्य-वाचकभाव भी नहीं होता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-संबद्ध अर्थ तो शब्दका वाच्य हो नहीं सकता है, क्योंकि जिस अर्थके साथ सम्बन्ध ग्रहण किया जाता है वह अर्थ शब्दप्रयोगकालमें रहता नहीं है। उसीप्रकार असम्बद्ध अर्थ भी शब्दका वाच्य नहीं हो सकता है, क्योंकि असम्बद्ध अर्थको शब्दका वाच्य मानने पर अव्यवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है अर्थात् यदि असम्बद्ध अर्थको शब्दका वाच्य माना जायगा तो सब अर्थ सब शब्दोंके वाच्य हो जायेंगे। यदि कहा जाय कि अर्थसे शब्दकी उत्पत्ति होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तालु आदिसे शब्दकी उत्पत्ति पाई जाती है। उसीप्रकार शब्दसे अर्थकी उत्पत्ति होती है, यह कहना भी नहीं बनता है क्योंकि शब्दकी उत्पत्तिके पहले भी अर्थका सद्भाव पाया जाता है । शब्द और अर्थमें तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध पाया जाता है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि करण और अधिकरणके भेदसे जिनमें भेद है ऐसे शब्द और अर्थको (१) न सम्बद्धस्यास्तीत-स० । तुलना-". 'चक्षुरादिना चानेकान्तात्"-न्यायकुमु० पृ० १२१३ (२) सम्बन्धार्थः अ०, आ० । (३) उत्पाद्यते अ०। (४) तुलना-"तादात्म्याभ्युपगमोप्ययुक्तः विभिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वात्"-न्यायकुमु० पृ० १४४ । "मुखे हि शब्दमुपलभामहे भूमावर्थमिति ।"-शाबरभा० ११११५। 'न तावत्तादात्म्यलक्षणः विभिन्नदेशतया तयोः प्रतीयमानत्वात् ।"-न्यायकुमु० पृ० ५३६ । “तत्र तावन्न तादात्म्यलक्षण प्रतिबन्धोऽस्ति भिन्नाक्षग्रहणादिभ्यो हेतुभ्यः । तत्र भिन्नाक्षग्रहणं भिन्नेन्द्रियेण ग्रहणम् । तथाहि श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दो गृह्यते अर्थस्तु चक्षुरादिना आदिशब्देन कालदेशप्रतिभासकारणभेदो गृह्यते ।"-तत्त्वसं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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