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________________ NAAAAM २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापनयोः परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमनापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्तेः । ततः सजातीय-विजातीयविनिर्मुक्ताः केवलाः परमाणव एव सन्तीति भ्रान्तः स्तम्भादिस्कन्धप्रत्ययः । नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयोः समानत्वे एकत्वापत्तेः। न कथञ्चित्समानतापि; विरोधात् । ते च परमाणवो निरवयवाः; ऊर्धाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्तेः, परंमाणोऽपरमाणुत्वप्रसङ्गाच्च । ६१६४. न शुक्नः कृष्णो भवति; उभयोर्मिनकालावस्थितत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसम्बन्धात् । ६१६५. नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति । तद्यथा-नासम्बद्धोऽर्थो गृह्यते; जिन्होंने अपने स्वरूपको छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संयोगसम्बन्ध अथवा समवाय सम्वन्धके मानने में विरोध आता है। तथा सर्वथा भिन्न दो पदार्थोमें भी संयोगसम्बन्ध अथवा समवायसम्बन्ध नहीं बनता है, क्योंकि सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में संयोग अथवा समवायसम्बन्धके मानने पर अव्यवस्था प्राप्त होती है। इसलिये सजातीय और विजातीय दोनों प्रकारकी उपाधियोंसे रहित केवल शुद्ध परमाणु ही हैं, अतः जो स्तंभादिकरूप स्कन्धोंका प्रत्यय होता है वह ऋजुसूत्रनयकी दृष्टि में भ्रान्त है। तथा इस नयकी दृष्टि में कोई किसीके समान नहीं है, क्योंकि दोको सर्वथा समान मान लेने पर उन दोनोंमें एकत्वकी आपत्ति प्राप्त होती है अर्थात् वे दोनों एक हो जायेंगे। दोमें कथञ्चित् समानता भी नहीं है, क्योंकि दोमें कथञ्चित् समानताके माननेमें विरोध आता है। तथा इस नयकी दृष्टिमें सजातीय और विजातीय उपाधियोंसे रहित वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उन परमाणुओंके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवोंके मानने पर अनवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है और परमाणुको अपरमाणुपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् यदि परमाणुके ऊर्ध्वभाग आदि माने जायँगे तो उन भागोंके भी अन्य भाग मानने पड़ेंगे और इसतरह अनवस्था दोष प्राप्त होगा। तथा परमाणु परमाणु न रहकर स्कन्ध हो जायगा, क्योंकि स्कन्धोंमें ही ऊर्श्वभाग, मध्यभाग और अधोभाग आदि रूप अवयव पाये जाते हैं। ___ १९४. तथा इस नयकी दृष्टिमें 'शुक्ल कृष्ण होता है। यह व्यवहार भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों भिन्न भिन्न कालवर्ती हैं। अतः वर्तमान पर्यायमें विनष्ट पर्यायका सम्बन्ध नहीं बन सकता है। अर्थात् जिस समय शुक्ल पर्याय है उस समय कृष्ण पर्याय नहीं है और जब कृष्ण पर्याय है तब नष्ट शुक्ल पर्यायके साथ उसका सम्बन्ध नहीं रहता है। ३१६५. तथा इस नयकी दृष्टिमें ग्राह्य-ग्राहकभाव भी नहीं बनता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-असंबद्ध अर्थका तो ग्रहण होता नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्था (१)-माणोरपरमा-अ०, आ० । (२)-सम्बन्धो अ०, मा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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