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________________ २३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ रेकत्वविरोधात्, क्षुर-मोदकशब्दोच्चारणे मुर्खस्य पाटन-पूरणप्रसङ्गाच्च । न विकल्पः शब्दवाच्यः; अत्रापि बाह्यार्थोक्तदोषप्रसङ्गात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति । सत्येवं सकलव्यवहारोच्छेदः प्रसजतीति चेत् न नयविषयप्रदर्शनात् । एक माननेमें विरोध आता है। अर्थात् शब्दका भिन्न इन्द्रियसे ग्रहण होता है और अर्थका भिन्न इन्द्रियसे ग्रहण होता है तथा शब्द भिन्न देशमें रहता है और अर्थ भिन्न देशमें रहता है अत: उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं बन सकता है। फिर भी यदि उनमें तादात्म्यसम्बन्ध माना जाता है तो छुरा शब्दके उच्चारण करने पर मुखके फट जाने तथा मोदक शब्दके उच्चारण करने पर मुहके भर जानेका प्रसंग प्राप्त होता है। विकल्प शब्दका वाच्य है ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर भी बाह्य अर्थके पक्षमें कहे गये दोषोंका प्रसंग प्राप्त होता है अर्थात् अर्थको शब्दका वाच्य स्वीकार करने पर जो दोष दिये गये हैं विकल्पको भी शब्दका वाच्य मानने पर वही दोष आते हैं । इसलिये इस नयकी दृष्टिमें वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध नहीं होता है। शंका-यदि ऐसा है तो सकल व्यवहारका उच्छेद प्राप्त होता है। समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ पर ऋजुसूत्रनयका विषय दिखलाया गया है। विशेषार्थ-जो तत्त्वको केवल वर्तमान कालरूपसे स्वीकार करती है और भूतकालीन तथा भविष्यत्कालीन रूपसे स्वीकार नहीं करती ऐसी क्षणिक दृष्टि ऋजुसूत्रनय कही जाती है। आगममें पर्यायके दो भेद कहे हैं अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । इनमेंसे अगुरुलघु गुणके निमित्तसे होनेवाली प्रदेशयत्व गुणके सिवा अन्य समस्त गुणोंकी एक समयवर्ती वर्तमानकालीन पर्यायको अर्थपर्याय और प्रदेशवत्व गुणके वर्तमानकालीन विकारको व्यंजनपर्याय कहते हैं । यद्यपि व्यंजनपर्याय अनेक क्षणवर्ती भी होती है फिर भी उसमें वर्तमान कालका उपचार कर लिया जाता है। ऊपर ऋजुसूत्रनयका जो स्वरूप कहा है तदनुसार ये दोनों ही पर्यायें ऋजुसूत्र नयकी विषय हो सकती हैं। इनमेंसे अर्थपर्याय सूक्ष्म ऋजुसूत्र नयका विषय है और व्यञ्जनपर्याय स्थूल ऋजुसूत्रनयका विषय । प्रकृतमें सामान्यरूपसे ऋजुसूत्रनयके विषयका विचार किया गया है। जब कि इसका विषय वर्तमानकालीन एक क्षणवर्ती पर्याय है तो अतीत और अनागत पर्यायें इसका विषय कैसे हो सकती हैं ? तथा वर्तमानकालीन पर्यायको भी न तो सर्वथा निष्पन्न ही कहा जा ५० पृ० ४४० । न्यायप्र० वृ० ५० पृ० ७६ । (१) तुलना-"पूरणप्रदाहपाटनानुपलब्धेश्च सम्बन्धाभावः ।"-न्यायसू० २१११५३ । “स्याच्चेदर्थेन सम्बन्धः क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणे स्याताम् ।"-शाबरभा० ११११५ । शास्त्रवा० श्लो० ६४५ । अनेकान्तज० ५० ४२ । न्यायकुमु० पृ० १४४, ५३६ । (२) मुख्यस्य अ० । (३) “संव्यवहारलोप इति चेत; अस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शनं क्रियते । सर्वनयसमहसाध्यो हि लोकसंव्यवहारः।"सर्वार्थसि०, राजवा० ११३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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