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________________ २२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? "दव्वढियणयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ । पडिसेंवं पुण वयणत्यणिच्छओ तस्स ववहाँरो ॥८६॥" "संग्रहनयकी प्ररूपणाका विषय द्रव्यार्थिकनयकी शुद्ध प्रकृति है। अर्थात् संग्रहनय अभेदका कथन करता है। और पदार्थके प्रत्येक भेदके प्रति शब्दार्थका निश्चय करना उसका व्यवहार है। व्यवहारनय द्रव्यार्थिकनयकी अशुद्ध प्रकृति है अर्थात् व्यवहार नय भेदका कथन करता है ॥८६॥" विशेषार्थ-सामान्यविशेषात्मक पदार्थ प्रमाणका विषय है। यहां सामान्य धर्मका अर्थ अभेद और विशेष धर्मका अर्थ भेद है। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक है। अतः जव तक उत्पाद और व्ययकी अपेक्षा वस्तुमें भेद नहीं किया जाता है तब तक उत्तरोत्तर जितने भी भेद होते हैं वे सामान्यात्मक या अभेदरूप ही कहे जाते हैं। इनमेंसे सत्ता या द्रव्यके अभेदसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला संग्रहनय है और सत्ता या द्रव्यभेदसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला व्यवहारनय है। संग्रहनय संग्रहरूप प्ररूपणाको विषय करता है इसलिये वह द्रव्यार्थिक अर्थात् सामान्यग्राही नयकी शुद्ध प्रकृति कही जाती है और व्यवहारनय सत्ताभेद या द्रव्यभेदसे वस्तुको ग्रहण करता है इसलिये वह द्रव्यार्थिक नयकी अशुद्ध प्रकृति कही जाती है। व्यवहारनयको द्रव्यार्थिकनयकी अशुद्ध प्रकृति कहनेका कारण यह है कि व्यवहारनय यद्यपि सामान्यधर्मकी मुख्यतासे ही वस्तुको ग्रहण करता है इसलिये वह द्रव्यार्थिक है फिर भी वह सामान्य अर्थात् अभेदमें भेद मानकर प्रवृत्त होता है। इसलिये वह द्रव्यार्थिक होते हुए भी उसकी अशुद्ध प्रकृति है । इसका यह अभिप्राय है कि महासत्तामें उत्तरोत्तर भेद करते हुये प्रवृत्ति करनेवाला व्यवहारनय है और महासत्ता तथा उसके अवान्तरभूत सत्ताओंको ग्रहण करनेवाला संग्रहनय है। संग्रहनयके पर संग्रह और तया अशुद्धद्रव्याथिकः व्यवहारनयः ।"-ध० आ० ५० ५४३ । (१) “स्वजात्यविरोधेन एकध्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रहः ।" -सर्वार्थसि०, राजवा०, त० श्लो० २३३ । “शुद्धं द्रव्यमभिप्रेति संग्रहस्तदभेदतः ।"-लघी० का० ३२। "विधिव्यतिरिक्तप्रतिषेधानुपलभ्भाद् विधिमात्रमेव तत्त्वमित्यध्यवसायः समस्तग्रहणात् संग्रहः। द्रव्यव्यतिरिक्त पर्यायानुपलम्भाद् द्रव्यमेव तत्त्वमित्यध्यवसायो वा संग्रहः।"-नयवि० श्लो० ६७। प्रमेयक० पृ०६७७ । नयचक्र० गा०३४। "संगहिय पिडियत्थं संगहवयणं समासओ बिति।"-अन० स० १५२। आ० नि० गा. ७५६ । “अर्थानां सर्वैकदेशसंग्रहणं संग्रहः । आह च यत्संगृहीतवचनं सामान्ये देशतोऽथ च विशेषे। तत्संग्रहनयनियतं ज्ञानं विद्यान्नय विधिज्ञः॥"-त० भा० श३५ । सन्मति०टी०प०२७२। प्रमाणनय०७।१३। स्या० म०प०३११ । जैनतर्कभा०प०२२ । (२)-वं मणवयणत्थणित्थओ स०। (३) सन्मति० ११४॥"संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।"-सार्थसि०, राजवा० १३३ । ध० सं० १० ८४ ॥ त० श्लो० १०२७१। नयवि० श्लो०७४ । प्रमेयक० पू०६७७। नयचक्र० गा० ३५। "वच्चइ विणिच्छिअत्थं ववहारो सव्वदव्वेसु ।"-अनु० सू० १५०। आ० नि० गा० ७५६ । "लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थों व्यवहारः 'आह च लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृत विद्यात् ।"-२० भा० ११३५ । सन्मति० टी० पृ० ३११। प्रमाणनय०७।२३ । स्या० म०पू० ३११ । जैनतर्कभा०पू०२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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