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________________ गा० १३-१४ ] परूवणं २२१ ९ १८३. यदस्ति न तद्वयमतिलंघ्य वर्तत इति नैकगमो नैगमः शब्द-शीलकर्म - कार्य-कारणाधाराधेय - सहचार- मान - मेयोन्मेय-भूत भविष्य द्वर्तमानादिकमाश्रित्य स्थितोपचारविषयः । अपर संग्रह इस प्रकार दो भेद किये जानेका भी यही कारण है । परसंग्रह सत्स्वरूप है अतः केवल महासत्ताक ही ग्रहण करता है और अपरसंग्रह, द्रव्यके छह भेद हैं इत्यादि रूपसे उत्तरोत्तर किये जानेवाले अवान्तर सत्ताके अवान्तर भेदोंको स्वीकार न करता हुआ उन्हें अभेदरूपसे ग्रहण करता है । इसप्रकार संग्रह और व्यवहार ये दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद समझना चाहिये । - १८३. जो सत् है वह दोनों अर्थात् भेद और अभेदको छोड़कर नहीं रहता है । इस प्रकार जो केवल एकको ही, अर्थात् अभेद या भेदको ही प्राप्त नहीं होता है, किन्तु मुख्य और गौणभाव से भेदाभेद दोनोंको ग्रहण करता है उसे नैगम नय कहते हैं । शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, सहचार, मान, मेय, उन्मेय, भूत, भविष्यत् और वर्तमान इत्यादिकका आश्रय लेकर होनेवाला उपचार नैगमनयका विषय है । विशेषार्थ-नैगमनयके तीन भेद हैं- द्रव्यार्थिकनैगम, पर्यायार्थिकनैगम और द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम । इनमेंसे संग्रह और व्यवहारनयके विषयको गौण मुख्यभावसे ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिकनैगम है । शुद्ध और अशुद्ध पर्यायोंको गौणमुख्यभावसे ग्रहण करनेवाला पर्यायार्थिकनैगम है । तथा सामान्य और विशेषको गौणमुख्यभावसे ग्रहण करनेवाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगम है । ऊपर जो यह कहा है कि नैगमनय भेद और अभेदको गौणमुख्यभावसे स्वीकार करता है उसका भी यही अभिप्राय प्रतीत होता है । जब केवल सत्ता में भेदाभेदक विवक्षासे नैगमनयका विषय कहा जाता है तब वह संग्रह और व्यवहारनयके विषयको गौण - मुख्यभावसे स्वीकार करनेवाला होता है । तथा जब पर्याय में अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय आदिकी विवक्षासे नैगमनयका विषय कहा जाता है तब वह पर्यायार्थिक नयोंके विषयको गौण-मुख्य भावसे ग्रहण करनेवाला होता है और जब द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षा भेदाभेद गौणमुख्यभावसे नैगमनयका विषय रहता है तब वह द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय कहलाता है । भेद और अभेद इन दोनोंको विषय करनेवाला होनेसे नैगमनय प्रमाण नहीं हो जाता है, क्योंकि प्रमाण ज्ञानमें भेदाभेदात्मक समग्र वस्तुका बोध किसी एक धर्मको गौण और किसी एक धर्मको मुख्य करके नहीं होता है जब कि नैगमनय किसी एक धर्मको गौण और किसी एक धर्मको मुख्य करके वस्तुको ग्रहण करता है । इस प्रकार यह नय (१) “अनभिनिर्वृत्तार्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः । " - सर्वार्थसि०, राजवा० ११३३ | " अन्योन्यगुण भूतैकभेदाभेदप्ररूपणात् नैगमः । " - लघी० का० ३९, ६८ । “तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः यद्वा नैकं गमो योऽत्र स सतां नैगमो मतः । धर्मयोः धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥" - त० इलो० पृ० २६९ । नयवि० श्लो० ३३ - ३७ । प्रमेयक० पू००। नयचक्र गा० ३३ । “गेहि माणेहिं मिणइति णेगमस्स य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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